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योगसार-प्राभृत
जीवके उपयोग लक्षण और उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख करके केवलज्ञान और केवलदर्शन नाम के दो उपयोगोंका कर्मोंके क्षयसे और शेष उपयोगोंका कर्मोके क्षयोपशमसे उदित होना लिखा है तथा क्षयसे उदित होनेवाले ज्ञान दर्शनकी युगपत् और दूसरे सब ज्ञान दर्शनोंकी क्रमशः उत्पत्ति बतलायी है ( १०, ११ ) । ज्ञानोपयोग में मिथ्याज्ञानका मिध्यात्वके और सम्यक् ज्ञानका सम्यक्त्व के समवायसे उदय होना बतलाकर दोनोंके स्वरूप तथा भेदका उल्लेख करते हुए मिथ्यात्वको कर्मरूपी बगीचेके उगाने बढ़ानेके लिए जलदान के समान लिखा है. (१३) और सम्यक्त्वको सिद्धिके साधन में समर्थ निर्दिष्ट किया है (१६) ।
आत्माको ज्ञानप्रमाण, ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण सर्वगत और ज्ञेयको लोकालोक-प्रमाण बतलाकर ज्ञानको आत्मासे अधिक ( बड़ा ) माननेआदिपर जो दोपापत्ति घटित होती है। उसे तथा ज्ञानकी व्यापकताको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है ( २०, २१ ) | ज्ञान
को जानता हुआ कैसे ज्ञेयरूप नहीं हो जाता, कैसे उसमें दूरवर्ती पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित करनेकी शक्ति है और कैसे वह स्वपरको जानता है, इन सबको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि क्षायोपशमिक ज्ञान तो विवक्षित कर्मोंका नाश हो जानेपर नाशको प्राप्त हो जाता है परन्तु क्षायिक ज्ञान जो केवलज्ञान है वह सदा उदयको प्राप्त रहता है— कर्मोंके नाशसे उसका नाश नहीं होता ( २२-२५ ) । इसके बाद केवलज्ञानको त्रिकालगोचर सभी सत्-असत् विषयोंको, जिनके स्वरूपका निर्देश भी साथ में किया गया है, युगपत् जाननेवाला बतलाकर यह युक्तिपुरस्सर प्रतिपादन किया गया है कि यदि ऐसा न माना जाय तो वह एक भी पदार्थका पूर्णज्ञाता नहीं बन सकेगा (२६-३०) । इसके पश्चात् वातिकर्मों के क्षयसे उत्पन्न आत्माके परमरूपकी श्रद्धा किसको होती है और उसका क्या फल है इसे बतलाते हुए (३१३२ ) आत्माके परमरूपकी अनुभूतिके मार्गका निर्देश किया है और उसमें निरवद्य श्रुतज्ञानको भी शामिल किया है ( ३३, ३४ ) ।
आत्मा के सम्यक चारित्र कब बनता है, कब उसके अहिंसादिक व्रतभंग हो जाते हैं और कब हिंसादिक पाप उससे पलायन कर जाते हैं, इन सबको दर्शाते हुए ( ३५-३७ किस ध्यानसे कर्मच्युति बनती है, पर द्रव्यरतयोगीकी क्या स्थिति होती है। और निश्चय तथा व्यवहार चारित्रका क्या स्वरूप है यह सब बतलाया है (३८-४३ ) और फिर यह निर्देश करते हुए कि आत्मोपासना से भिन्न दूसरा कोई भी निर्वाण-सुख की प्राप्तिका उपाय नहीं है आत्माकी अनुभूतिके उपायको और आत्मा के शुद्धस्वरूपको दर्शाया है, जो कि कर्म-कर्म से विमुक्त अजर, अमर, निर्विशेष और सर्व प्रकार के बन्धनोंसे रहित है । इसीसे चेतनात्मा जीवके स्वभावसे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्दादिक नहीं होते। ये सब शुद्ध स्फटिक में रक्तपुष्पादिके योगकी तरह शरीरके योगसे कहे जाते हैं (४४-५४) राग-द्वेपादिक भी संसारी जीवों के औयिक भाव हैं- स्वभाव-भाव नहीं; गुणस्थानादि २० प्ररूपणाएँ और क्षायोपशमिक भावरूप ज्ञानादि भी शुद्ध जीवका कोई लक्षण नहीं हैं ( ५५-५९ ) अन्तमें मुक्तिको प्राप्त करनेवाले जीवका क्या रूप होता है उसे साररूपमें देकर ( ५९ ) प्रथम अधिकारको समाप्त किया गया है।
(२) दूसरे अधिकार में धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँच द्रव्यों के नाम देकर इन्हें 'अजीव' बतलाया है; क्योंकि वे जीवके उपयोग- लक्षण से रहित हैं (१) । ये पाँचों अजीव द्रव्य परस्पर मिलते-जुलते, एक-दूसरेको अपने में अवकाश देते हुए कभी भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते (२) । इनमें पुद्गलको छोड़कर शेष सब अमूर्तिक और निष्क्रिय हैं । जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्शकी व्यवस्थाको अपने में लिये हुए हो उसे 'मूर्तिक' कहते हैं ।
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