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१७२ योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ८ चेलखण्डका धारक साधु निरालम्ब-निरारम्भ नहीं हो पाता ''सूत्रोक्त'मिति गृह्णानश्चेलखण्डमिति स्फुटम् ।
निरालम्बो निरारम्भः संयतो जायते कदा ॥३६॥ 'जो संयमी-मुनि 'आगममें कहा है' ऐसा कहकर वस्त्रखण्ड (लंगोटी आदि) को स्पष्टतया धारण करता है वह निरालम्ब और निरारम्भ कब होता है ?-कभी भी नहीं हो पाता।'
व्याख्या–यदि साधुके लिए वस्त्रखण्ड आदिका रखना शास्त्र-सम्मत माना जाय तो वह साधु कभी भी आलम्बनरहित-परकी अपेक्षा-अधीनतासे वर्जित-और निरारम्भस्व-पर-घातसे शून्य-नहीं हो सकेगा । सदा पराधीन तथा हिंसक बना रहेगा और इसलिए स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि एवं मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकेगा।
वस्त्र-पात्रग्राही योगीके प्राणघात और चित्तविक्षेप अनिवार्य 'अलाबु-भाजनं वस्त्रं गृह्णतोऽन्यदपि ध्रुवम् ।
प्राणारम्भी यतेश्चेतोव्याक्षेपो वायते कथम् ॥३७।। 'तुम्बी पात्र, वस्त्र तथा और भी परिग्रहको निश्चित रूपसे ग्रहण करनेवाले साधुके प्राणवध और चित्तका विक्षेप कैसे निवारण किया जा सकता है ?-नहीं किया जा सकता।
व्याख्या-पिछले पद्यमें प्रयुक्त 'चेलखण्ड' पद यद्यपि 'वस्त्रखण्डमात्र'का वाचक है परन्तु उपलक्षणसे उसमें भाजन आदि भी शामिल हैं, इसी बातको यहाँ 'वस्त्र' पदके साथ 'अलाबुभाजनं' और 'अन्यदपि' पदोंके द्वारा स्पष्ट किया गया है, 'अन्यत्' शब्द कम्बल तथा मृदु शय्यादिका वाचक-सूचक है और इसलिए इन्हें भी 'सूत्रोक्त' परिग्रहकी कोटिमें लेना चाहिए । इन पर-पदार्थों के ग्रहणमें प्रवृत्त योगीके प्राणघात और चित्तके विक्षेपका निराकरण नहीं किया जा सकता, शुद्धोपयोगके न बननेसे वे दोनों बराबर होते ही रहते हैं। 'अलाबुभाजन, और प्रवचनसारका 'द्रग्धिका भाजन' दोनों एक ही अर्थके वाचक है ।
विक्षेपको अनिवार्यता और सिद्धिका अभाव स्थापनं चालनं रक्षांक्षालनं शोषणं यतेः। कुर्वतो वस्त्रपात्रादेाक्षेपो न निवर्तते ॥३८॥ 'आरम्भोऽसंयमो मूर्छा कथं तत्र निषिध्यते । पर-द्रव्य-रतस्यास्ति स्वात्म-सिद्धिः कुतस्तनी ।।३६।।
१. गेण्हदि व चेलखंड भायणमत्थि त्ति भणिदमिह सुते । जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ॥२१॥ (क)-प्रवचनसार अ० ३ । २. वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं च गेण्हदि णियदं । विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ॥२॥ (ख)-प्रवचनसार अ० ३ । ३. गेण्हइ विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता। पत्थं च चेलखंडं विभेदिपरदो य पालयदि ॥३-२१ (ग) ।। -प्रवचनसार । ४. किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स । तध परदब्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥३-२१॥-प्रवचनसार ।
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