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२२४ योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ९ स्वात्मध्यानका यह स्वाधीन मार्ग ही विशेषतः रुचिकर था और वे प्रायः इसीके अनुसरण एवं दृढ़ीकरणमें प्रवृत्त रहते थे। शायद इसीसे उन्होंने अगले एक पद्य (८३) में अपनेको 'निःसंगात्मा' लिखा है जो कि उनकी परके संगसे रहितता एवं स्वावलम्बी होनेका द्योतक है । इस शुद्धस्वात्माके ध्यानमें पापोंको प्रयत्नपूर्वक त्यागनेकी भी जरूरत नहीं रहती, वे तो सबके सब ज्ञानके स्वात्मलीन होनेपर स्वयं भाग जाते हैं, जैसा कि ग्रन्थकार महोदयने अन्यत्र प्रकट किया है। परका सम्बन्ध न होनेसे शुभ राग भी नहीं रहता, जो कि पुण्यबन्धका कारण है और आत्माको संसारमें फँसाये रखता है। इसीसे जहाँ अर्हद्भक्ति आदि रूपमें राग रहता है वहाँ वह महान् पुण्यबन्धका कारण होता है, जो कि संसारके सुखोंका प्रदाता है, परन्तु उससे कर्मोंका भय नहीं होता।
संसारके हेतुओंका देशच्छेद होनेपर जिस चारित्रके उद्भवकी यहाँ बात कही गयी है वह व्यवहारचारित्र है, जो कि अशुभसे निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्तिरूप होता है और जिसे व्रत, समिति तथा गुप्तिके रूपमें तीन प्रकारका तथा इनके उत्तरभेदों (५+५+३) की दृष्टिसे तेरह प्रकारका बतलाया है। निश्चयनयकी दृष्टिसे जो चारित्र बनता है वह स्वरूपाचरणके रूपमें होता है, उसे ही यहाँ संसार हेतुओंके मूलच्छेदका परिणाम बतलाया है।
किनका जन्म और जीवन सफल है दृष्ट्वा बाह्यमनात्मनीनमखिलं मायोपमं नश्वरं
ये संसार-महोदधिं बहुविधक्रोधादिनक्राकुलम् । तीळ यान्ति शिवास्पदं शममयं ध्यात्वात्मतत्त्वं स्थिर
तेषां जन्म च जीवितं च सफलं स्वाथै कनिष्ठात्मनाम् ॥८२।। 'जो सारे बाह्य जगत्को अनात्मीय, मायारूप तथा नश्वर देखकर, स्थिर आत्मतत्त्वका ध्यान कर नाना प्रकारके क्रोधादि नाकुओंसे भरे संसार-समुद्रको तिरकर सुखमय शिवस्थानको प्राप्त होते हैं उन आत्मीय स्वार्थकी साधनामें एकनिष्ठा ( अद्वितीय श्रद्धा) रखनेवालों (महात्माओं ) का जन्म और जीवन सफल है।'
व्याख्या-यहाँ जिनके जन्म और जीवनको सफल बतलाया है वे वे महात्मा होते हैं जो सारे बाह्य जगत्को अनात्मीय (अपना कोई नहीं) मायाजल तथा इन्द्रजालके समान भ्रामक और क्षणभंगुर देखकर-साक्षात् अनुभव कर-अपने शाश्वत आत्माके स्वार्थ-साधनमें-विभाव-परिणमनको हटाकर उसे स्वात्मस्थित करनेमें-एक निष्ठासे तत्पर हुए, शुद्ध आत्मतत्त्वके ध्यान-द्वारा क्रोधादि कषायरूप नाकुओं ( मगरों) से भरे हुए संसार महा. समुद्रको तिरकर शान्तिमय शिवस्थान अथवा ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं।
ग्रन्थ और ग्रन्थकारके अभिप्रेतरूप प्रशस्ति दृष्ट्वा सर्व गगननगर-स्वप्न-मायोपमानं निःसङ्गात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारम् ।
१. हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं संगसंग्रहः । आत्मरूपगते ज्ञाने नि:शेषं प्रपलायते ॥ यो० प्रा० ३७ ॥ २. यो विहायात्मनो रूपं सेवते परमेष्ठिनः । स बध्नाति परं पुण्यं न कर्मक्षयमश्नुते ॥यो० प्रा०४८।। ३. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ।।-बृहद्रव्यसंग्रह, ४५। ४. मु शिवमयं ।
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