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२२२ योगसार-प्राभृत
[अधिकार ९ किस ज्ञानसे ज्ञेयको जानकर उसे त्यागा जाता है विज्ञाय दीपतो द्योत्यं यथा दीपो व्यपोह्यते । विज्ञाय ज्ञानतो ज्ञेयं तथा ज्ञानं व्यपोह्यते ॥७॥ स्वरूपमात्मनः सूक्ष्ममव्यपदेश(श्य)मव्ययम् ।
तत्र ज्ञानं परं सर्व वैकारिकमपोह्यते ॥७६॥ जिस प्रकार दीपकसे द्योत्य (प्रकाशनीय वस्तु) को जानकर दीपकको द्योत्यसे अलग किया जाता है उसी प्रकार ज्ञानसे ज्ञेयको जानकर ज्ञानको ज्ञेयसे अलग किया जाता है। जो ज्ञान आत्माका स्वरूप है, सूक्ष्म है, व्यपदेशरहित अथवा वचनके अगोचर है उसका व्यपोहन-त्याग अथवा पृथक्करण-नहीं होता, उससे भिन्न जो वैकारिक-इन्द्रियों आदि द्वारा विभाव परिणत-ज्ञान है उसको दूर किया जाता है।'
व्याख्या-दीपक जिस वस्तुका द्योतन-प्रकाशन करता है उसे 'द्योत्य' कहते हैं । दीपकके प्रकाशकी सहायतासे जब किसी अन्धेरेमें स्थित वस्तुको देखकर जान लिया तथा प्राप्त कर लिया जाता है तब फिर दीपककी जिस प्रकार जरूरत नहीं रहती-उसे बुझा दिया अथवा अलग कर दिया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान जिस वस्तुका ज्ञापन-द्योतन करता है उसे 'ज्ञेय' कहते हैं । ज्ञानसे जब शेयको जान लिया जाता है तब उस ज्ञानके व्यापारकी जरूरत नहीं रहती और इसलिए उसे ज्ञेयसे अलग अथवा निर्व्यापारीकृत रूपमें स्थित कर दिया जाता है । जिस ज्ञानको ज्ञेयसे अलग अथवा निर्व्यापारीकृत किया जाता है वह वह ज्ञान नहीं जो आत्माका स्वभाव है, सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियोंके अगोचर है, अव्यपदेश्य (अकाच्य) होनेसे वचनके अगोचर है और जिसका कभी नाश नहीं होता किन्तु वह ज्ञान है जिसे 'वैकारिक' कहते हैं और जो इन्द्रियादि-परपदार्थजन्य विकार अथवा विभावको लिये हुए होता है । ऐसे ज्ञानको पिछले पद्य ७६ में 'चौद्गलिक' बतलाया है, वही अपोहन-पृथक्करणके योग्य होता है । जो ज्ञान स्वाभाविक है (वैभाविक नहीं) उसका आत्मासे कभी त्याग या पृथक्करण नहीं होता और न हो सकता है ।
विकार हेतुके देशच्छेद तथा मूलच्छेदका परिणाम स्कन्धच्छेदे पल्लवाः सन्ति भूयो
मूलच्छेदे शाखिनस्ते तथा नो । देशच्छेदे सन्ति भूयो विकारा
मूलच्छेदे जन्मनस्ते तथा नो ॥८॥ "जिस प्रकार वृक्षके स्कन्ध ( काण्ड ) का छेद होनेपर पत्ते फिर निकल आते हैं किन्तु मूलका छेद होनेपर-जड़से वृक्षको काट डालनेपर-पत्ते फिर नहीं उगते, उसी प्रकार संसारका एक देश नाश करनेपर विकार फिर उत्पन्न हो जाते हैं किन्तु मूलतः विनाश करनेपर विकार फिर उत्पन्न नहीं होते।'
१. दीपहस्तो यथा कश्चित्किंविदालोक्य तं त्यजेत् । ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्चात्तं ज्ञानमुत्सृजेत् ॥ -यशस्तिलक । २. सूक्ष्ममपव्यपोद्देशमव्ययं ।
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