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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ९ योगसारमिदमेकमानसः प्राभृतं पठति योऽभिमानसः । स्व-स्वरूपमुपलभ्य सोऽश्चितं सम याति भव-दोष-वञ्चितम् ।।४।। इति श्रीमदमितगति-निःसंग योगिराज-विरचिते योगसार
प्राभृते चूलिकाधिकारः ॥ ९ ॥
'इस योगसार प्राभृतको जो एक चित्त हुआ एकाग्रतासे पढ़ता है वह अपने स्वरूपको जानकर तथा सम्प्राप्त कर उस पूजित सदनको--लोकानके निवासरूप पूज्य मुक्ति हलको-- प्राप्त होता है जो संसारके दोषोंसे रहित है--संसारका कोई भी विकार जिसके पास नहीं फटकता।' ___व्याख्या-यह ग्रन्थका अन्तिम उपसंहार-पद्य है, जिसमें ग्रन्थके नामका उल्लेख करते ए उसके एकाग्रचित्तसे पठनके-अध्ययनके-फलको दरशाया है और वह फल है अपने आत्मस्वभावकी उपलब्धि-ज्ञप्ति (जानकारी) और सम्प्राप्ति--जो कि सारे संसार के दोपोंसेविकारोंसे-रहित है और जिसे प्राप्त करके यह जीव इतना ऊँचा उठ जाता है कि लोकके अग्रभागमें जाकर विराजमान हो जाता है, जो कि संसारके सारे विकारोंसे रहित--सारी झंझटों तथा आकुलताओंसे मुक्त-एक पूजनीय स्थान है।
आत्माके इस पूर्ण-विकास एवं जीवनके चरम लक्ष्यको लेकर ही यह ग्रन्थ रचा गया है, जिसका ग्रन्थके प्रथम मंगल पद्यमें 'स्वस्वभावोपलब्धये' पदके द्वारा और पिछले ८३वें पद्यमें 'ब्रह्मप्राप्त्यै' पदोंके द्वारा उल्लेख किया गया है और इसलिए वही उद्दिष्ट एवं लक्ष्यभूत फल इस ग्रन्थके पूर्णतः एकाग्रताके साथ अध्ययनका होना स्वाभाविक है। अतः अपना हित चाहनेवाले पाठकोंको इस मंगलमय प्राभृतका एकाग्रचित्तसे अध्ययन कर उस फलको प्राप्त करनेके लिए अग्रसर होना चाहिए जिसका इस पद्य में उल्लेख है ।
इस प्रकार श्री अमितगति निःसंग योगिराज-विरचित योगसार प्राभृतमें.
चलिकाधिकार नामका नौवाँ अधिकार समाप्त हुबा ॥९॥
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