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पद्य ७८-८१]
चूलिकाधिकार व्याख्या-वृक्षके एकदेश-शाखादिका छेद होनेपर जिस प्रकार उसमें नये पत्ते फिरसे निकल आते हैं उस प्रकार नये पत्तोंका फिरसे निकलना मूलच्छेद होनेपर-वृक्षके जड़से कट जानेपर अथवा उखड़ जानेपर-नहीं बनता, यह सभीको प्रत्यक्ष देखने में आता है । इस उदाहरणको लेकर यहाँ संसारके एकदेशच्छेद और मूलच्छेद (सर्वदेशच्छेद ) के कारण होनेवाले विकारोंकी स्थितिको कुछ स्पष्ट किया गया है-संक्षेपमें इतना ही कहा गया है कि एकदेशच्छेद होनेपर विकार उत्पन्न होते हैं और मूलच्छेदपर उत्पन्न नहीं होते। यहाँ संसारका अर्थ भवभ्रमणका है जिसे 'जन्मनः' पदके द्वारा उल्लेखित किया है और उसमें संसारके हेतु भी शामिल हैं। विकारोंका अभिप्राय राग-द्वेषादिक, जन्म-मरणादिक अथवा नये-नये शरीर धारण का है।
देशच्छेद और मूलोच्छेदके विषयका स्पष्टीकरण देशच्छेदे चरित्रं भवति भवततेः कुर्वतश्चित्ररूपं मूलच्छेदे विविक्तं वियदिव विमलं ध्यायति स्वस्वरूपम् । विज्ञायेत्थं विचिन्त्यं सदमितगतिभिस्तत्त्वमन्तःस्थमग्र्यं
संग्राप्तासन्नमार्गा न परमिह पदप्राप्तये यान्ति मार्गम् ।।८१॥ 'संसारके एकदेशका-पापरूपका-नाश होनेपर संसारको परम्पराका विचित्ररूप करता हुआ चारित्र होता है और संसारके मूलका-पाप-पुण्य दोनों कारणोंका-नाश होनेपर आत्मा अपने आकाशके समान निर्मल विविक्त (कर्मकलंक विमुक्त) स्वस्वरूपको ध्याता है। इस प्रकार जानकर जो उत्तम ज्ञानके धारक महात्मा हैं उनके द्वारा अन्तरंगमें स्थित प्रधान तत्त्व जो शुद्ध आत्मा है वह विशेष रूपसे चिन्तनीय है ( ठोक है। ) जिन्हें अभीष्ट स्थानको प्राप्तिका संनिकट मार्ग प्राप्त हो जाता है वे फिर दूसरे मार्गसे गमन नहीं करते।'
व्याख्या-यहाँ संसारके देशच्छेद और मूलच्छेदके अभिप्रेत विषयको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि संसारका देशच्छेद होनेपर-संसारके हेतुभत मिथ्यादर्शनादिक, राग-द्वेपादिक अथवा पुण्य-पापादिका एकदेश नाश होनेपर-जो चारित्र होता है वह संसारसन्ततिको चित्र-विचित्र रूप देनेबाला अथवा उसे नानाप्रकारसे बढ़ानेवाला होता है । प्रत्युत इसके संसारके उक्त हेतुओंका मूलच्छेद होनेपर यह आत्मा अपने उस विविक्त शुद्ध-स्वरूपके ध्यानमें मग्न होता है जो आकाशके समान निर्मल एवं निर्लेप है । इस प्रकार देशच्छेद और मूलच्छेदके स्वरूपको भले प्रकार समझकर जो उत्तम अमितज्ञानके धारक महात्मा हैं उन्हें अपने अन्तरंगमें स्थित प्रधान तत्त्व जो अपना शद्धात्मा है, उसका सविशेषरूपसे चिन्तनध्यान करना चाहिए। यह ध्यान अभीष्ट स्थान (मुक्तिसदन ) की प्राप्तिके लिए आसन्न मार्ग है-सबसे निकटका रास्ता है । और इसलिए जिन्हें संनिकट मार्ग प्राप्त होता है वे फिर दूसरे दूरके अथवा चक्करके मार्गसे नहीं जाते हैं। पद्यके अन्तिम चरणमें कही गयी यह बात बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है, और इस बातको सूचित करती है कि अपनी शुद्धात्माके ध्यानसे भिन्न और जितने भी ध्यानके मार्ग है वे सब दूरीके साथ परावलम्बनको भी लिये हुए हैं।
इस पद्य में प्रयुक्त हुआ 'सदमितगतिभिः' पद भी अपना खास महत्त्व रखता है-उसमें गति' डाब्द ज्ञानका वाचक होनेसे वह जहाँ अपरिमितज्ञानके धारक महात्माओंके उल्लेखको लिये हुए है वहाँ प्रकारान्तरसे (श्लेषरूपमें ) ग्रन्थकार महोदयके नामका भी सूचक है और साथ ही इस सूचनाको भी लिये हुए जान पड़ता है कि आचार्य अमितगतिको शुद्ध
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