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पद्य ३०-३५ ]
चूलिकाधिकार
परम तत्व कौन और उससे भिन्न क्या
विविक्तमान्तरं ज्योतिर्निराबाधमनामयम् । यदेतत् तत्परं तत्वं तस्यापरमुपद्रवः ||२३||
'यह जो विविक्त-कर्म कलंकसे रहित - निर्भय और निरामय ( निर्विकार ) अन्तरंग ( अध्यात्म ) ज्योति है वह परम तत्त्व है, उससे भिन्न दूसरा और सब उपद्रव है ।'
व्याख्या - यहाँ जिस शुद्ध आत्मज्योतिका उल्लेख है उसीको चिन्तन एवं ध्यानके योग्य परतत्त्व बतलाया है। शेष सबको उपद्रव घोषित किया है; क्योंकि अन्तिम लक्ष्य और ध्येय इसी परंतत्त्वको प्राप्त करना है, इसकी प्राप्तिके लिए और सबको छोड़ना पड़ेगा । इससे अन्य सबको पारमार्थिक दृष्टिसे 'उपद्रव' संज्ञा दी गयी जान पड़ती है।
मुमुक्षुओं को किसी भी तत्त्वमें आग्रह नहीं करना
न कुत्राप्याग्रहस्तत्त्व विधातव्यो मुमुक्षुभिः ।
निर्वाणं साध्यते यस्मात् समस्ताग्रहवर्जितैः ||३४||
'जो मोक्षके अभिलाषी हैं उन्हें (अन्य ) किसी भी तत्त्वमें आग्रह नहीं करना चाहिए; क्योंकि जो समस्त आग्रहोंसे - एकान्त अभिनिवेशोंसे - वर्जित हैं उन्हींके द्वारा निर्वाण सिद्ध किया जाता है ।'
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व्याख्या—यहाँ मुमुक्षुओंको तत्त्वविषयमें कहीं भी आग्रह करनेका निषेध किया है; क्योंकि आग्रह एकान्तका द्योतक है और वस्तु तत्त्व अनेकान्तात्मक है। निर्वाणकी प्राप्ति हीं होती है जो सम्पूर्ण आग्रहोंसे रहित हो जाते हैं-लिंग जाति आदिका भी कोई आग्रह नहीं रहता । लिंग और जाति ये दोनों देहाश्रित हैं और देह ही आत्माका संसार है । अतः जो मुक्तिकी प्राप्तिके लिए अमुक लिंग ( वेष ) तथा अमुक ब्राह्मणादि जातिका आग्रह रखते हैं अथवा अमुक जातिवाला अमुक वेष धारण करके मुक्तिको प्राप्त होता है, ऐसा जिनके आगमानुबन्धी आग्रह है वे संसारसे नहीं छूट पाते और न आत्माके परमपदको ही प्राप्त होते हैं; जैसा कि श्री पूज्यपाद आचार्य के निम्न वाक्योंसे प्रकट है :
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लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताग्रहाः ॥ ८७ जातिर्देहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहाः ॥८८॥ जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः । तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः ॥ ८९ ॥
- समाधितन्त्र
आग्रहवजित तत्त्वमें कर्ता-कर्मादिका विकल्प नहीं
कर्ताहं निर्वृतिः कृत्यं ज्ञानं हेतुः सुखं फलम् । hist विद्यते तत्र विकल्पः कल्पनातिगे ||३५||
'मैं कर्ता हूँ, निर्वाण कृत्य — कार्य है, ज्ञान हेतु है और सुख उसका फल है, इनमें से एक भी विकल्प उस कल्पनारहित एवं आग्रहवर्जित साधकमें नहीं होता है ।'
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