Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 265
________________ अज्ञात भाव पद्य ६८-७२] चूलिकाधिकार २१९ क्या वह इन्द्रिय-विषयोंको न ग्रहण करता हुआ बन्धको प्राप्त नहीं होता ? उत्तरमें कहा गया है कि वह विमूढ विषयोंको न ग्रहण करता हुआ भी बन्धको प्राप्त होता है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि एकेन्द्रियादि जीव अपने विषयसे भिन्न विषयको ग्रहण न करते हुए भी निश्चित रूपसे बन्धको प्राप्त होते हैं-उनका अज्ञानादि भाव उन्हें बन्धका पात्र बनाता है। अतः जो लोग अज्ञानके कारण दोष करके अपनेको दोषमुक्त समझते हों वे भूलते हैं, अज्ञान किसीको दोषमुक्त नहीं करता-यह दूसरी बात है कि ज्ञातभावसे किये हुए कर्मकी अपेक्षा त भावसे किये हुए कर्मके फल में कुछ अन्तर किसका प्रत्याख्यानादि कर्म व्यर्थ है राग-द्वेष-निवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा। राग-द्वेष-प्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा ॥७१॥ 'जो राग-द्वेषसे रहित योगी है उसके प्रत्याख्यानादिक कर्म व्यर्थ हैं और जो राग-द्वेष में प्रवृत्त है उसके प्रत्याख्यानादि कर्मका कोई अर्थ नहीं-वह सब निरर्थक है।' व्याख्या-जो राग-द्वेषसे निवृत्त हो गया है और जो राग-द्वेषमें प्रवृत्त है दोनोंके प्रत्याख्यानादि कर्म-क्रियाओंको यहाँ व्यर्थ अकार्यकारी एवं निरर्थक बतलाया है । प्रत्याख्यानादि कर्म षडावश्यक कर्मोंके अन्तर्गत हैं, जिनका वर्णन संवराधिकारमें पद्य नं०४७ से ५३ तक दिया है, उनमें से आदि शब्दके द्वारा यहाँ शेष सभीका अथवा मुख्यतः सामायिक, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्गका ग्रहण है। ये सब कर्म राग-द्वेषकी निवृत्ति एवं संवरके लिए किये जाते हैं अतः जो राग-द्वेषसे निवृत्त हो चुका उसके लिए इन कर्मोंके करनेकी जरूरत नहीं रहती और इसलिए इनका करना उसके लिए व्यर्थ है। और जो राग-द्वेषादिमें प्रवृत्त है-खूब रचा-पचा है--राग-द्वेष जिससे छूटते नहीं उसके लिए भी इन कोंका करना व्यर्थ है; क्योंकि जब इन कर्मोंका लक्ष्य ही उसके ध्यानमें नहीं और प्रवृत्ति उलटी चल रही है तब इन कर्मोको जाब्तापूरी अथवा यान्त्रिकचारित्र (जड मशीनों जैसे आचरण) के रूपमें करनेसे क्या लाभ ? कुछ भी लाभ न होनेसे वे व्यर्थ ठहरते हैं। दोषोंके प्रत्याख्यानसे कौन मुक्त है सर्वत्र यः सदोदास्ते न च द्वेष्टि न रज्यते । प्रत्याख्यानादतिक्रान्तः स दोषाणामशेषतः ॥७२॥ 'जो किसी वस्तुमें राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता और सर्वत्र उदासीन भावसे रहता है वह दोषोंके प्रत्याख्यानकर्मसे पूर्णतः विमुक्त है-उसे नियमतः उस कर्मके करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती।' ___व्याख्या-जो योगी किसीसे राग नहीं करता, द्वेष भी नहीं करता, सदा सर्वत्र उदासीन भावसे रहता है वह दोषोंके प्रत्याख्यानोंकी सीमासे पूर्णतः बाह्य होता है उसके लिए प्रत्याख्यानका करना कोई आवश्यक नहीं । ऐसा योगी क्षीणमोहको प्राप्त प्रायः १२, १३वें, १४वें गुणस्थानवर्ती होता है। पिछले पद्यमें जिस राग-द्वेष-निवृत्त योगीका उल्लेख है वह भी प्रायः क्षीणमोही योगीसे ही सम्बन्ध रखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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