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पद्य ६१-६७] चूलिकाधिकार
२१७ व्याख्या-यहाँ उस योगीके कर्तव्यका निर्देश है जिसने क्रोधादि सारे कषाय-भावको नष्ट किया है, उसे तब अपने चित्तको बाह्य पदार्थोंसे हटाकर तथा आत्माके शुद्ध स्वरूप में स्थिर करके चिन्तनका कुछ भी कार्य न करना चाहिए--आत्मामें केवल लीनता ही बनी रहे।
इन्द्रिय-विषयोंके स्मरणकर्ताकी स्थिति स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षोऽपि विषयेषु दृढ-स्मृतिः ।
सदास्ति दुःस्थितो दीनो लोक-द्वय-विलोपकः ॥६५॥ 'जो इन्द्रिय-विषयोंमें दृढ़स्मृति है--विषयोंको बराबर स्मरण करता रहता है वह इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे अलग रखता हुआ भी सदा दुःखित दीन और दोनों लोकोंका बिगाड़नेवाला होता है।'
व्याख्या-यहाँ इन्द्रिय-विषयोंके स्मरण-दोषको बहुत ही हानिकारक बतलाया है और उसकी मौजूदगीमें इन्द्रियोंको उनके विषयसे अलग रखनेका कुछ मूल्य नहीं रहता, ऐसा सूचित किया है। उक्त स्मरण दोषके कारण इन्द्रियोंकी विजय ठीक नहीं बनती, उसमें अतिचारादि दोष लगता रहता है और संलोश परिणामोंकी सृष्टि होनेसे योगी सदा दुःखित रहता, दीनतापर उतरता और इस तरह अपने दोनों लोक बिगाड़ता है। अतः योगीको अपने पूर्व भोगोंका स्मरण तथा आगामी भोगोंका निदानादिके रूपमें अनुचिन्तन नहीं करना चाहिए।
भोगको न भोगने-भोगनेवाले किन्हीं दो की स्थिति भोगं कश्चिदभुञ्जानो भोगार्थ कुरुते क्रियाम् ।
भोगमन्यस्तु भुजानो भोगच्छेदाय शुद्धधीः ॥६६॥ 'कोई भोगको न भोगता हुआ भी भोगके लिए क्रिया करता है, दूसरा शुद्ध बुद्धि भोगको भोगता हुआ भी भोगके छेदका प्रयत्न करता है।'
व्याख्या-यहाँ भोगको भोगनेवाले और न भोगनेवाले किन्हीं दो व्यक्तियों के विपरीतविचार-भेदको दर्शाया गया है--एक किसी बन्धन अथवा मजबूरीके कारण भोगको न भोगता हुआ भी उसके लिए रागादिरूप मन-वचन-कायकी क्रिया करता है और दूसरा भोगको भोगता हुआ भी उसमें आसक्ति नहीं रखता और इसलिए उसके मन-वचन-कायका व्यापार एक दिन उसे छोड़ देनेकी ही ओर होता है। अपने इस विचार व्यापारके कारण दूसरेको 'शद्ध-बुद्धि' कहा गया है और इसलिए पहलेको, जो बाह्यमें भोगका त्याग करता है तथा अन्तरंगमें उसकी लालसा रखता है, शुद्ध बुद्धि नहीं कहा जा सकता. उसे दुर्बुद्धि तथा विवेकहीन समझना चाहिए । अपनी इस दुर्बुद्धि के कारण वह भोगका त्यागी होनेपर भी पापका बन्ध करता है, जबकि दूसरा अपनी शुद्ध बुद्धिके कारण भोगको भोगता हुआ भी पापफलका भागी नहीं होता। दोनोंकी प्रवृत्तिमें तद्विपरीत विचार के कारण कितना अन्तर है उसे यहाँ स्पष्ट जाना जाता है।
इन्द्रिय-विषयोंके स्मरण-निरोधकको स्थिति स्वार्थ-व्यावर्तित्ताऽक्षोपि निरुद्धविषय-स्मृतिः । सर्वदा सुस्थितो जीवः परत्र ह च जायते ॥६७।।
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