Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 262
________________ २१६ योगसार-प्राभृत [अधिकार ९ ___ 'जो निःसंग है-निर्ममत्व और अनासक्त है-वह विषयोंमें स्थित हुआ भी विषयोंसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जिस प्रकार कीचड़में पड़ा विशुद्ध स्फटिक कीचड़से लिप्त नहीं होता-कीचड़को अपना नहीं बनाता, अपने अन्तरंगमें प्रविष्ट नहीं करता।' व्याख्या-यहाँ कर्दमस्थ निर्मल स्फटिकके उदाहरण-द्वारा विषयोंमें स्थित अनासक्त योगीके विषयोंसे लिप्त न होनेकी बातको स्पष्ट किया गया है। देह-चेतनके तात्त्विक भेद-ज्ञाताको स्थिति देहचेतनयोर्भेदो दृश्यते येन तत्त्वतः । न सङ्गो जायते तस्य विषयेषु कदाचन ॥६१॥ "जिसने वस्तुतः देह और चेतन आत्माका भेद देख लिया है उसका विषयोंमें कभी संगसम्बन्ध अथवा अनुराग नहीं होता।' व्याख्या--पिछले पद्यमें जिस निःसंग-योगीका उल्लेख है उसके विषयको यहाँ कुछ स्पष्ट करते हुए यह सूचित किया है कि वह योगी देह और आत्माके भेदको तात्त्विक दृष्टिसे भले प्रकार समझे हुए होता है और इसलिए उसकी विषयोंमें कभी आसक्तिरूप प्रवृत्ति नहीं होती-वह उनसे अलिप्त रहता है। जिसकी प्रवृत्ति पायी जाती है समझ लेना चाहिए उसने देह और चेतनके भेदको दृष्टिगत नहीं किया। जीवके त्रिविध-भावोंकी स्थिति और कर्तव्य भावः शुभोऽशुभः शुद्धोधा जीवस्य जायते । यतः पुण्यस्य पापस्य निर्वृतेरस्ति कारणम् ॥६२॥ ततः शुभाशुभी हित्वा शुद्ध भावमधिष्ठितः । निवृतो जायते योगी कर्मागमनिवर्तकः ॥६३॥ 'जीवका भाव तीन प्रकारका होता है-शुभ, अशुभ और शुद्ध। चूंकि शुभभाव पुण्यका, अशुभभाव पापका और शुद्धभाव निवृति (मुक्ति ) का कारण है अतः जो योगी कर्मोके आस्रवका निरोधक है वह शुभ अशुभ भावोंको छोड़कर शुद्धभावमें अधिष्ठित हुआ मुक्तिको प्राप्त होता है।' व्याख्या-यहाँ जीवके भावोंके शुभ, अशुभ और शुद्ध ऐसे तीन भेद करते हुए उन्हें क्रमशः पुण्य, पाप तथा निर्वृति (मुक्ति ) का हेतु बतलाया है और साथ ही यह सूचित किया है कि जो योगी शुभ-अशुभ भावोंको छोड़कर, जो कि कर्मासबके हेतु हैं, शुद्धभावमें स्थित होता है वह कर्मोंके आस्रवका निवर्तक निरोधक होता है और मुक्तिको प्राप्त करता है। निरस्ताखिल कल्मष योगीका कर्तव्य विनिवृत्या(वार्थतश्चित्तं विधायात्मनि निश्चलम् । न किंचिञ्चिन्तयेद्योगी निरस्ताखिलकल्मषः ॥६४॥ "जिस योगीने सारे कल्मषका--कपायभावका-नाश किया है वह चित्तको सब पदार्थोंसे हटाकर और आत्मामें निश्चल करके कुछ भी चिन्तन न करे-आत्माका शुद्ध स्वरूप ही उसके ध्यानमें स्थिर रहे ।' १. व्या कदाचनः । २. मुनिवरेव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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