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योगसार-प्राभूत
[ अधिकार ९ _ 'जो आत्मा कर्ममलसे ( पूर्णतः ) पृथक किया गया है वह फिर कर्ममलसे लिप्त नहीं होता । ( ठीक है ) किट्टसे पृथक् किया गया स्वर्ण फिर किस हेतु किट्टसे युक्त होता है ? हेत्वभावके कारण युक्त नहीं होता।'
व्याख्या-जो आत्मा आत्मभावनाके अभ्यास-द्वारा परभावको छोड़ता हुआ अपनेमें तन्मय (लं. न ) होता है और इस तरह कर्ममलसे छुटकारा पाता है वह फिर कभी उस कर्ममलके साथ सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार जिस प्रकार कि किट्ट-कालिमासे पृथक हुआ सुवर्ण फिर उस किट्ट-कालिमाके साथ युक्त नहीं होता।
घटोपादान-मृत्तिकाके समान कर्मका उपादान कलुषता दण्ड-चक्र-कुलालादि-सामग्री सम्भवेऽपि नो। संपद्यते यथा कुम्भो विनोपादानकारणम् ।।५४।। मनो-वचो-चपुःकर्म-सामग्रीसंभवेऽपि नो । संपद्यते तथा कर्म विनोपादानकारणम् ।।५५।। कालुष्यं कर्मणो ज्ञेयं सदोपादानकारणम् ।
मद्र्व्यमिव कुम्भस्य जायमानस्य योगिभिः ॥५६॥ "जिस प्रकार दण्ड, चक्र और कुम्भकार आदि सामग्रीके मौजूद होते हुए भी बिना उपादान कारण ( मृत्पिण्ड ) के कुम्भ (घट ) की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार मन-वचन-कायके क्रियारूप सामग्रीके होते हुए भी बिना उपादान कारणके कर्मको उत्पत्ति नहीं होती। कर्मका उपादान कारण कलुषता है उसी प्रकार जिस प्रकार कि मिट्टीसे उत्पन्न होनेवाले घटका उपादान कारण मृत्तिका द्रव्य है, यह योगियोंको सदा जानना चाहिए।'
व्याख्या-मिट्टीके घड़ेकी उत्पत्तिमें मिट्टी उपादान कारण है उसके अभावमें अन्य सब सामग्री (दण्ड-चक्र-कुलालादि ) का सद्भाव होते हुए भी जिस प्रकार मिट्टीका घड़ा नहीं बनता, उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मकी उत्पत्तिका उपादान कारण कालुष्य-कषायभाव है, उसके अभावमें मन-वचन-कायकी क्रियारूप अन्य सब सामग्रीका सदभाव होते हुए भी आत्माको कर्मबन्धकी प्राप्ति नहीं होती, यह बात सदा ध्यानमें रखने योग्य है । अतः जो मुमुक्षु योगी अपनेको कर्मबन्धनसे छुड़ाकर मोक्षकी प्राप्ति कराना चाहते हैं उन्हें सदा कर्मके उपादानकारण कषाय भावको दूर रखनेका यत्न करना चाहिए, उसके दूर किये बिना अन्य सब क्रियाकाण्डसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अन्य सब सामग्री तभी सहायकरूपमें अपना काम कर सकेगी जब कलुषताका अभाव होगा। यदि कलुषता दूर नहीं की जाती तो समझना चाहिए कि कर्मका बन्ध बराबर हो रहा है और ऐसी स्थितिमें मुक्तिकी आशा रखना व्यर्थ है।
कषायादि करता हुआ जीव कैसे कपायादि रूप नहीं होता यथा कुम्भमयो जातु कुम्भकारो न जायते । सहकारितया कुम्भं कुर्वाणोऽपि कथंचन ॥५७।। कषायादिमयो जीवो जायते न कदाचन । कुर्वाणोऽपि कषायादीन् सहकारितया तथा ॥५८||
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