Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 258
________________ २१२ योगसार- प्राभृत भिन्न ज्ञानोपलब्धि से देह और आत्माका भेद देहात्मनोः सदा भेदो भिन्नज्ञानोपलम्भतः इन्द्रियैर्ज्ञायते देहो नूनमात्मा स्वसंविदा ||४८ || 'भिन्न-भिन्न ज्ञानोंसे उपलब्ध ( ज्ञात ) होनेके कारण शरीर और आत्माका सदा परस्पर भेद है । शरीर इन्द्रियोंसे -- इन्द्रिय ज्ञानसे -- जाना जाता है और आत्मा निश्चय ही स्वसंवेदन ज्ञानसे जाननेमें आता है ।' व्याख्या-संसारी जीवका देहके साथ अनादि-सम्बन्ध है --स्थूल देहका सम्बन्ध कभी छूटता भी है तो भी सूक्ष्म देह जो तेजस और कार्माण नामके शरीर हैं उनका सम्बन्ध कभी नहीं छूटता, इसीसे उन्हें 'अनादिसम्बन्धे च' इस सूत्र के द्वारा अनादिसे सम्बन्धको प्राप्त कहा है । इस अनादि-सम्बन्धके कारण बहुधा देह और आत्माको एक समझा जाता है । परन्तु देह और आत्मा कभी एक नहीं होते, सदा भिन्नरूप बने रहते हैं और इसका कारण यह है ि वे भिन्न ज्ञानोंके द्वारा उपलब्ध होते-जाने जाते हैं । इन्द्रिय ज्ञानसे देह जाना जाता है और आत्मा वस्तुतः स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा ही साक्षात् जाननेमें आता है--इन्द्रियाँ उसे जानने में असमर्थ हैं । [ अधिकार ९ कर्म जीवके और जीव कर्मके गुणोंको नहीं घातता न कर्म हन्ति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान् । are- घातक भावोऽस्ति नान्योऽन्यं जीवकर्मणोः || ४६ || 'कर्म जीवके गुणोंको और जीव कर्मके गुणोंको घात नहीं करता । जीव और कर्म दोनोंका परस्पर एक-दूसरेके साथ वध्य घातक भाव नहीं है ।' व्याख्या -- जीव और कर्मका जो परस्पर सम्बन्ध है वह अन्धकार और प्रकाशकी तरह वध्य-घातकके रूप में नहीं है, इसीसे कर्म जीवके और जीव कर्मके गुणोंको नहीं घातताएक-दूसरेके स्वभावको नष्ट करनेमें कभी समर्थ नहीं होता । हाँ, एक-दूसरे के विभावपरिणमनमें निमित्त कारण जरूर हो सकता है। क्योंकि जीव और पुद्गल दोनों में वैभाविकी - विभावरूप परिणमनकी--शक्ति पायी जाती है । Jain Education International जीव और कर्म में पारस्परिक परिणामकी निमित्तता न रहनेपर मोक्ष यदा प्रति परीणामं विद्यते न निमित्तता | परस्परस्य विश्लेषस्तयोर्मोक्षस्तदा मतः ||५०|| 'जब जीव और कर्मके परस्परमें एक-दूसरेके परिणामके प्रति निमित्तताका अस्तित्व नहीं रहता, तब दोनोंका जो विश्लेष-- सर्वथा पृथकपना होता है वह 'मोक्ष' माना गया है ।' व्याख्या - जीव और पुद्गल कर्मका विभाव- परिणमन एक-दूसरे के निमित्तसे होता है, जिस समय यह निमित्तता नहीं रहती - मिथ्यादर्शनादि बन्ध-हेतुओंका अभाव होनेसे सदा के लिए समाप्त हो जाती है--उसी समय जीव और कर्मोंका विश्लेष-- सर्वथा पृथक्त्व - हो जाता है, जिसे 'मोक्ष' ( निर्वाण ) कहा गया है और जो बन्धका विपरीत रूप है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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