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२१० योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ९ "जिस समय परिणामी जीवके कलुषताका अभाव होता है उस समय उसके परिणाम स्वर्णकी तरह उत्तरोत्तर शुद्ध होते चले जाते हैं।'
व्याख्या-यहाँ संसारी जीवको परिणामी-एक परिणामसे दूसरे परिणामरूप परिणमन करनेवाला-लिखा है। उस जीवके जब कलुषताका अभाव हो जाता है तो उसके परिणाम मल रहित सुवर्णके समान उत्तरोत्तर शुद्धतामें परिणत होते जाते हैं ।
कलुषताका अभाव हो जानेपर जीवको स्थिति कल्मषाभावतो जीवो निर्विकारो विनिश्चलः ।
निर्वात-निस्तरङ्गान्धि-समानत्वं प्रपद्यते ॥४३॥ 'कल्मषके अभावसे यह जीव वायु तथा तरंगसे रहित समुद्रके समान निर्विकार और निश्चल हो जाता है।'
व्याख्या-कपायादिरूप कल्मष (कालय) का अभाव हो जानेपर इस जीवकी स्थिति उस समुद्रके समान निर्विकार और निश्चल हो जाती है जिसमें वायुका संचार नहीं और न कोई कल्लोल-तरंग या लहर ही उठती है। आत्माकी ऐसी अवस्थाको ही 'निर्विकल्पदशा' कहते हैं, जिसमें ध्यान, ध्याता, ध्येय आदि तकका कोई विकल्प नहीं रहता।
आत्माके शुद्ध स्वरूपको कुछ सूचना अक्ष-ज्ञानार्थतो भिन्नं यदन्तरवभासते ।
तद्रपमात्मनो ज्ञातृज्ञातव्यमविपर्ययम् ॥४४॥ 'इन्द्रियज्ञानके विषयसे भिन्न जो अन्तरंगमें अवभासित होता है वह ज्ञाताके गम्य आत्माका अभ्रान्त रूप है।'
व्याख्या-यहाँ आत्माके उस शुद्धरूपकी जो कभी विपरीतताको प्राप्त नहीं होता कुछ सूचना करते हुए लिखा है वह इन्द्रियज्ञानके विषयसे भिन्न है-किसी भी इन्द्रियके द्वारा जाना नहीं जाता-आत्माके अन्तरंगमें अवभासमान है और ज्ञाता आत्माके द्वारा ही जाना जाता है। इसीसे स्वसंवेद्य कहा जाता है।
आत्माको परंज्योतिका स्वरूप यत्रासत्यखिलं ध्वान्तमुद्द्योतः सति चाखिलः ।
अस्त्यपि ध्वान्तमुद्योतस्तज्ज्योतिः परमात्मनः ॥४॥ 'जिसके विद्यमान न होनेपर सब अन्धकार है, और विद्यमान होनेपर सब उद्योतरूप है अन्धकार भी उद्योतरूप परिणत होता है वह आत्माकी परम ज्योति है।'
व्याख्या-जिस आन्तर्योति तत्त्वका पिछले एक पद्य (३३) में उल्लेख है उसके विषयमें यहाँ लिखा है कि यह आत्माकी वह परंज्योति है जिसके अभावमें सब कुछ अन्धकारमय
१. जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प बचभेद न जहाँ, चिद्भाव कर्म, चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोगको निश्चल दशा, प्रकटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये तीनधा एक लसा ।।-छहढाला, दौलतराम । २. व्या तद् द्योतिः ।
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