Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 254
________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ९ व्याख्या - यहाँ समस्त आग्रह - वर्जनकी बात को स्पष्ट करते हुए यहाँतक लिखा है कि मुक्ति उस निर्विकल्प साधकमें कर्ता, कार्य, कारण और फलका भी कोई विकल्प नहीं रहता । इनमें से एक भी विकल्पके रहनेपर मुक्तिकी साधना नहीं बनती। मुक्तिकी चरम साधनामें अपने अस्तित्वको भी भुलाकर उस परंतत्त्वरूप अध्यात्म-ज्योतिमें लीन हो जाना होता है जिससे बाह्य एवं भिन्न अन्य सबको पिछले एक पद्य (३३) में 'उपद्रव' बतलाया गया है । २०८ आत्मस्थित कर्म वर्गणाएँ कभी आत्मत्वको प्राप्त नहीं होतीं । आत्म-व्यवस्थिता यान्ति नात्मत्वं कर्मवर्गणाः । व्योमरूपत्वमायान्ति व्योमस्थाः किमु पुद्गलाः ॥ ३६ ॥ 'आत्मामें व्यवस्थित कर्मवर्गणाएँ ( कभी ) आत्मत्वको प्राप्त नहीं होतीं - आत्मा नहीं बन जातीं । ( ठीक है ) आकाशमें स्थित पुद्गल क्या कभी आकाशरूप हो जाते हैं-नहीं हो जाते ।' व्याख्या - जिन कमका आत्मासे पूर्णतः सम्बन्ध बिच्छेद होनेपर मुक्तिकी प्राप्ति होती है वे कर्म अनेक प्रकारकी वर्गणाओंके रूपमें आत्म-व्यवस्थित होते हुए भी कभी आत्मत्वको प्राप्त नहीं होते, इसकी सूचना करते हुए आकाशस्थित पुद्गलोंके उदाहरण द्वारा उसे स्पष्ट किया गया है। आकाशमें स्थित पुद्गल जिस प्रकार कभी आकाश रूप नहीं परिणमते उसी प्रकार आत्मा के साथ व्यवस्थित हुई कर्मवर्गणाएँ भी कभी आत्मरूप परिणत नहीं होतीं । कर्मजन्य स्थावर विकार आत्माके नहीं बनते स्थावराः कार्मणाः सन्ति विकारास्तेऽपि नात्मनः । शश्वच्छुद्धस्वभावस्य' सूर्यस्येव घनादिजाः ||३७|| 'कर्मजन्य जो स्थावर विकार हैं वे भी आत्माके उसी प्रकार नहीं हैं जिस प्रकार मेघादिजन्य विकार सदा शुद्ध स्वभावरूप सूर्यके नहीं हैं ।' व्याख्या - यदि कोई कहे कि आत्मामें जो स्थावर विकार हैं- पृथ्वी पर्वत वृक्षादिके समान स्थिर रहनेवाले विकार हैं- उन्हें तो आत्माके स्वतः विकार समझना चाहिए। तो उसके समाधानार्थ यहाँ यह बतलाया गया है कि स्थावर विकार भी आत्माके नहीं हैं किन्तु कर्मजनित हैं और उन्हें शुद्ध स्वभाव के धारक सूर्य के मेघादिजन्य विकारके समान समझना चाहिए | जीवके रागादिक परिणामों की स्थिति रागादयः परीणामाः कल्मषोपाधिसंभवाः । जीवस्य स्फटिकस्येव पुष्पोपाधिभवा मताः ||३८|| 'जीवके जो रागाविक परिणाम होते हैं वे कषायरूप कर्ममलको उपाधिसे उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार कि स्फटिकके पुष्पोंकी उपाधिसे उत्पन्न नाना रंगादिरूप परिणाम होते हैं - इसीसे स्फटिकको 'विश्वरूप माणिक' कहा गया है।' Jain Education International १ व्या प्रभावस्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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