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योगसार- प्राभृत
[ अधिकार ९
होता है । अतः निर्वाणके अभिलाषी ज्ञानीजनोंको जो बाह्य पदार्थों के परित्याग में निपुण हैं निश्चयपूर्वक मिथ्याज्ञानका त्याग करना चाहिए, जो कि वस्तुतः आत्मासे बाह्य पदार्थ है-मिथ्यात्वके सम्बन्धसे विभावरूपमें उत्पन्न होता है ।
ज्ञानी पापोंसे कैसे लिप्त नहीं होता
न ज्ञानी लिप्यते पापैर्भानुमानिव तामसैः । विषयैर्विध्यते ज्ञानी' न संनद्धः शरैरिव ||३०||
'ज्ञानी पापोंसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार सूर्य अन्धकारोंसे व्याप्त नहीं होता । ज्ञानी विषयोंसे उसी प्रकार नहीं बँधता है जिस प्रकार कवच ( बख्तर ) पहने हुए योद्धा बाणोंसे नहीं बिंधता है ।'
व्याख्या -- यहाँ उस ज्ञानीकी, जिसने भोग, संसार तथा निर्वाणका यथार्थ स्वरूप भले प्रकार समझ लिया है, स्थितिका वर्णन करते हुए लिखा है कि वह पापोंसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि सूर्य अन्धकारसे, और विषयोंसे उसी प्रकार बींधा नहीं जाता जिस प्रकार कि कवचधारी योद्धा तीरोंसे बींधा नहीं जाता ।
ज्ञानकी महिमाका कीर्तन
अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽपहम् । पुरुषार्थकरं ज्ञानं ज्ञानं निर्वृति-साधनम् ||३१||
'सम्यग्ज्ञान क्रिया कर्मके अनुष्ठानका आधार है, मोहान्धकारको नाश करनेवाला है, पुरुषके प्रयोजनको पूरा करनेवाला है और मोक्षका साधन है ।'
व्याख्या -- जिस ज्ञानीका पिछले पद्य में उल्लेख है उसके ज्ञानकी महिमाका इस पद्य में कुछ कीर्तन करते हुए उसे चार विशेषणोंसे युक्त बतलाया है, जिनमें एक है अनुष्ठानोंका आश्रय, आधार, दूसरा मोहान्धकारका नाश, तीसरा पुरुषके प्रयोजनका पूरक और चौथा है। मुक्तिका साधन | ये सब विशेषण अपने अर्थकी स्पष्टताको लिये हुए हैं ।
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कौन तत्त्व किसके द्वारा वस्तुतः चिन्तनके योग्य है
विकारा निर्विकारत्वं यत्र गच्छन्ति चिन्तिते ।
तत् तत्वं तत्त्वतश्चिन्त्यं चिन्तान्तर - निराशिभिः || ३२॥
'जिसके चिन्तन करनेपर विकार निर्विकारताको प्राप्त हो जाते हैं वह तत्त्व वस्तुतः उनके द्वारा चिन्तनके योग्य है जो अन्य चिन्ताओंका निराकरण करनेमें समर्थ हैं--स्थिर चित्त हैं ।'
व्याख्या -- यहाँ वास्तवमें उस तत्त्वको चिन्तन एवं ध्यानके योग्य बतलाया है जिसके चिन्तनसे विकार नहीं रहते -- निर्विकारता में परिणत हो जाते हैं अर्थात् राग-द्वेष-मोहादि दोष मिटकर वीतरागताकी प्रादुर्भूति होती है। इस तत्त्वचिन्तनके अधिकारी वे योगी हैं जो चिन्तान्तरका निराकरण करनेमें समर्थ होते हैं-- जिस तत्त्वका चिन्तन करते हैं उसमें अपने मनको इतना एकाग्र कर लेते हैं कि दूसरी कोई भी चिन्ता पास फटकने नहीं पाती ।
१. मुज्ञानं ।
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