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१८० योगसार-प्राभूत
[अधिकार ८ 'जो कषाय, विकथा, निद्रा, राग और इन्द्रियविषयोंसे विमुख हैं, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र और सुख-दुःखमें समता धारण करते हैं; आत्माको जिनके अन्वेषणा-खोज बनी रहती है, भिक्षा जिनकी एषणा-इच्छासे रहित है और सर्वत्र समचित्त रहते हैं ऐसे श्रमण साधु 'अनाहार' कहे गये हैं।'
व्याख्या-क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार कषायें; स्त्री, राज, भोजन, चोर ये चार प्रकार. की विकथाएँ, निद्रा, प्रेम ( वेद-राग) और पाँच इन्द्रिय विषय, इन पन्द्रह प्रमादोंसे जो मुनि मुख मोड़े रहते हैं; जीवन-मरण, शत्रु-मित्र और सुख-दुःख उपस्थित होनेपर जिनकी समता बनी रहती है-राग-द्वेषकी उत्पत्ति नहीं होती, जो सदा आत्माको चिन्ता-अन्वेषणाआराधनामें लीन रहते और यह समझते हैं कि आत्मा आहार-रूपमें कभी कोई पुद्गलपरमाणु ग्रहण नहीं करता-स्वभावसे निराहार हैं वे यदि देहकी स्थिति आदिकी दृष्टसे कभी आहार लेते भी हैं तो भी उन्हें 'अनाहार' कहा गया है, जिसके दो मूल कारण हैं-१. आत्माको स्वभावसे अनाहार समझना, २. आहारमें कोई खास इच्छा तथा आसक्ति न रखकर उसे लेना।
केवल देह साधुका स्वरूप 'यः स्वशक्तिमनाच्छाद्य सदा तपसि वर्तते ।
साधुः केवलदेहोऽसौ निष्प्रतीकार-विग्रहः ॥५८।। 'जो शरीरका प्रतिकार नहीं करता और अपनी शक्तिको न छिपाकर सदा तपश्चरणमें प्रवृत्त रहता है वह केवल देह-देहमात्र परिग्रहका धारक-साधु (श्रमण ) होता है।'
व्याख्या-जो साधु देहको भी परिग्रह समझता हुआ उसमें ममता-रहित होकर वर्तता है वह रोग-उपसर्गादिके आनेपर शरीरका कोई प्रतिकार नहीं करता और अपनी शक्तिको न छिपाकर सदा तपश्चर्या में लीन रहता है, उसे 'केवल देह'-देहमात्र परिग्रहका धारक-साधु कहते हैं।
केवल देह-साधुको भिक्षाचर्याका रूप 'एका सनोदरा भुक्तिमांस-मध्वादिव जिता।
यथालब्धेन भैक्षण नीरसा परवेश्मनि ॥५६।। उस केवल-देह श्रमण साधुकी आहार चर्या पराये घरपर यथालब्ध भिक्षाके द्वारा, एक बार, उनोदरके रूपमें, मांस-मधु आदि सदोष पदार्थोंसे रहित, मधुरादि रसोंमें से किसीकी अपेक्षा न रखनेवाली अथवा (प्रायः) नीरस होती है-रसास्वादको लिये हुए नहीं होती।'
व्याख्या-यहाँ 'मधु' और 'वर्जिता' शब्दोंके मध्यमें प्रयुक्त हुआ 'आदि' शब्द उन अन्वेषणीय कन्द-मूलादिका वाचक है जिनका कुछ उल्लेख एवं सूचन आगे ६३वें पद्य में किया गया है। और भिनाका 'यथालब्ध' विशेषण इस बातका सूचक है कि वह बिना किसी प्रेरणा
१. केवलदेहो समणो देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मो। आजुत्तो तं तवसा अणिगृहिये अप्पणो सत्ति ॥३-२८॥ -प्रवचनसार । २. एक्कं खलु तं भतं अप्पडिपण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥३-२९॥ -प्रवचनसार ।
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