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योगसार- प्राभृत
[ अधिकार ८
चिकित्सा करते हैं - जिस समय जिस रोगीकी जिस प्रकारकी व्याधि ( बीमारी ) होती है। उस समय चतुर वैद्य उस व्याधि तथा रोगीकी प्रकृति आदिके अनुरूप योग्य औषधकी योजना करते हैं ।'
व्याख्या - पिछले पद्यसे कोई यह न समझ ले कि मुक्तिका मार्ग बिलकुल एक ही साँचे में ढा हुआ होता है, सबके लिए समान रूपसे ही उसकी देशना की जाती है, उसकी प्रक्रिया में कहीं कोई रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता, इस ग़लतफ़हमीको दूर करनेके लिए ही इस पद्यका अवतार हुआ जान पड़ता है । यहाँ स्पष्ट रूपसे मोक्षमार्गकी देशनाका विशेषण 'विचित्रा' दिया गया है जो इस बातको सूचित करता है कि सबके लिए देशनाका एक ही रूप नहीं होता, क्योंकि सामान्यतः संसार-रोग एक होने पर भी उसकी अवस्थाएँ भिन्नभिन्न चित्तोंके अनुरोधसे भिन्न-भिन्न होती हैं। एक चतुर वैद्य एक ही रोगसे पीड़ित विभिन्न रोगियोंकी चिकित्सा में रोगीकी अवस्था आदिके अनुरोधसे जिस प्रकार विभिन्न चिकित्सा करता है उसी प्रकार संसार-रोग के ज्ञाता आचार्य भी संसारी प्राणियोंके रोगकी विभिन्न स्थिति तथा अवस्था आदिके अनुसार उन्हें विभिन्न प्रकारकी देशना किया करते हैं, जिसमें रोग-विषयक सिद्धान्तादिका कोई विरोध न होकर द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव के अनुसार उसकी चिकित्सा प्रक्रियामें अन्तर हुआ करता है । इसीसे अनेक आचार्योंके कथनोंमें परस्पर शासन-भेद पाया जाता है, इतना ही नहीं किन्तु जैन तीर्थंकरोंके शासन में भी भेद पाया जाता है । इसके लिए जैन ग्रन्थरत्नाकर हीराबाग बम्बई से प्रकाशित 'जैनाचार्योंका शासनभेद' नामक पुस्तकको देखना चाहिए, जिसमें परिशिष्ट रूपसे जैनतीर्थंकरोंका शासनभेद भी दिया हुआ है ।
उक्त चारित्र व्यवहारसे मुक्ति हेतु निश्चयमे विविक्त चेतनाका ध्यान कारणं निर्वृतेरेतच्चारित्रं व्यवहारतः ।
विविक्त चेतनध्यानं जायते परमार्थतः ||५||
'यह चारित्र जो ऊपर वर्णित हुआ वह व्यवहारसे निर्वाणका कारण है, निश्चयसे कर्मकलंक विमुक्त शुद्ध आत्माका जो ध्यान है वह निर्वाणका कारण होता है ।'
व्याख्या - यहाँ पूर्व वर्णित चारित्रके विषय में यह घोषणा की गयी है कि वह व्यवहार नयकी दृष्टिसे मुक्तिका मार्ग है- मुक्तिकी प्राप्तिका सहायक है - निश्चय नयकी दृष्टिसे विविक्त चेतनाका—कर्मकलंकसे रहित शुद्धात्माका - ध्यान मुक्तिका कारण होता है ।
व्यावहारिक चारित्र के भेद
यो व्यावहारिकः पन्थाः सभेद-द्वय-संगतः । अनुकूलो भवेदेको निर्वृतेः संसृतेः परः ॥ ६६ ॥
'जो व्यावहारिक ( व्यवहारनयाश्रित ) मार्ग है वह दो भेदोंको लिये हुए है, एक निर्वाणके अनुकूल है, दूसरा संसारके अनुकूल है ।'
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व्याख्या - यहाँ व्यवहार-मार्ग के दो भेद किये गये हैं- एक वह जो कि मुक्ति के अनुकूल होता है और दूसरा वह जो कि संसारके अनुकूल होता है। फलतः उसे मुक्ति के प्रतिकूल समझना चाहिए । जो व्यवहार-मार्ग मुक्तिके अनुकूल होता है उसीको मोक्षकी प्राप्तिमें सहायक समझना चाहिए ।
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