Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 243
________________ चूलिकाधिकार मुक्तात्मा दर्शन-ज्ञान-स्वभावको लिये सदा आनन्दरूप रहता है दृष्टिज्ञानस्वभावस्तु सदानन्दोऽस्ति निर्वृतः । न चैतन्य-स्वभावस्य नाशो नाश-प्रसङ्गतः ॥१॥ "निर्वृतिको--मुक्ति अथवा सिद्धिको-प्राप्त हुआ आत्मा दर्शन-ज्ञान-स्वभावको लिये हुए सदा आनन्दरूप रहता है। उसके ( दर्शन-ज्ञानरूप ) चैतन्य स्वभावका कभी नाश नहीं होता क्योंकि स्वभावका नाश माननेसे आत्माके ही नाशका प्रसंग उपस्थित होता है।' ___ व्याख्या-पिछले अधिकारमें वर्णित सम्यकचारित्रकी पूर्णताको प्राप्त होकर जब यह जीव निर्वृत-मुक्त होता है-इसे कुछ करना शेष नहीं रहता-तब यह अपने दर्शन-ज्ञान स्वभावको लिये हुए सदा आनन्दरूपमें तिष्ठता है । यदि कोई वैशेषिक मतकी मान्यताको लेकर यह कहे कि निर्वृत-मुक्त होनेपर बुद्धि आदि वैशेषिक-गुणोंका उच्छेद हो जानेसे चैतन्य स्वभावका नाश हो जाता है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि चैतन्यस्वभावका स्वभाव होनेसे कभी नाश नहीं होता। यदि स्वभावका भी नाश माना जायेगा तो द्रव्यके नाशका ही प्रसंग उपस्थित होगा-उसका किसी भी प्रकारसे कहीं कोई अस्तित्व नहीं बन सकेगा, यह महान् दोष आयेगा। प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वभावके कारण अपना-अपना अलग अस्तित्व रखती है । दर्शनज्ञानरूप चैतन्य स्वभावके कारण आत्मा भी अपना अलग अस्तित्व रखता है-उसका कभी नाश नहीं होता। मुक्तात्माका चैतन्य निरर्थक नहीं सर्वथा ज्ञायते तस्य न चैतन्यं निरर्थकम् । स्वभावत्वेऽस्वभावत्वे विचारानुपपत्तितः ॥२॥ 'मुक्तात्माका चैतन्य सर्वथा निरर्थक भी ज्ञात नहीं होता; क्योंकि निरर्थकको स्वभाव या अस्वभाव माननेपर चैतन्यको निरर्थकताका विचार नहीं बनता।' व्याख्या-मुक्तात्माके चैतन्यको जो सांख्यमतानुयायी सर्वथा निरर्थक बतलाते हैं-- यह कहते हैं कि वह चैतन्य ज्ञेयके ज्ञानसे रहित होता है-उसका निषेध करते हुए यहाँ दो विकल्प उपस्थित किये गये हैं-आत्माका चैतन्य निरर्थक स्वभावरूप है या निरर्थक स्वभावरूप नहीं है ? इन दोनोंमें-से किसीकी भी मान्यतापर निरर्थकताका विचार नहीं बनता, ऐसा सूचित किया गया है। आत्माका चैतन्य निरर्थक स्वभावरूप नहीं है, इस द्वितीय विकल्पकी मान्यतासे तो चैतन्यकी स्वभावसे सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और इसलिए आपत्तिके लिए कोई स्थान ही नहीं रहता। शेष आत्माका चैतन्य निरर्थक स्वभावरूप है ऐसा प्रथम विकल्प माननेपर आत्माके चैतन्यको निरर्थक बतलानेरूप विचार कैसे संगत नहीं बैठता इसको अगले दो पद्यों में स्पष्ट किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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