Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 245
________________ पद्य ३-९] चूलिकाधिकार चन्द्रकान्ति और मेघके उदाहरण-द्वारा विषयका स्पष्टीकरण यथा चन्द्रे स्थिता कान्ति निर्मले निर्मला सदा । प्रकृति विकृतिस्तस्य मेघादिजनितावृतिः ॥६॥ तथात्मनि स्थिता ज्ञप्तिर्विशदे विशदा सदा । प्रकृति विकृतिस्तस्य कर्माष्टककृतावृतिः ||७|| जीमूतापगमे चन्द्रे यथा स्फुटति चन्द्रिका । दुरितापगमे शुद्धा तथैव ज्ञप्तिरात्मनि ॥८॥ 'जिस प्रकार निर्मल चन्द्रमामें निर्मल कान्ति सदा स्थित रहती है, उसकी प्रकृति जो विकृति रूप होती है अथवा उसके निर्मल स्वभावमें जो विकार उत्पन्न होता है उसका कारण मेघादिजनित आवृति-आवरण है, उसी प्रकार निर्मल आत्मामें निर्मल ज्ञप्ति-ज्ञान ज्योतिसदा स्थित रहती है, उसकी प्रकृति जो विकृतिरूप होती है अथवा उसके निर्मल स्वभावमें विभाव परिणमनरूप जो विकार उत्पन्न होता है उसका कारण आठ कर्मोकी की हुई आवृति है। मेघोंके विघटित हो जानेपर जिस प्रकार चन्द्रमामें चाँदनी स्फुटित होती है उसी प्रकार कर्मोंके दूर हो जानेपर आत्मामें शुद्ध ज्ञप्ति-ज्ञान ज्योति-स्फुटित होती है।' व्याख्या-इन तीनों पद्योंमें चन्द्रमा और मेघके उदाहरण-द्वारा यह स्पष्ट करके बतलाया है कि वस्तुका जो स्वभाव है उसका कभी अभाव नहीं होता-परके निमित्तसे न्यूनाधिकरूपमें तिरोभाव अथवा विभाव परिणमन जरूर हो जाता है, परका सम्बन्ध मिटनेपर वस्तु अपने असली स्वभावमें प्रकट हो जाती है। यह विभाव-परिणमन जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें ही होता है, जिनमें वैभाविकी शक्ति पायी जाती है-अन्य द्रव्योंमें नहीं । मेघरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणु जिस प्रकार निर्मल चन्द्रमाकी चाँदनीमें विकार उत्पन्न करते हैं-उसे अपने असलीरूपमें प्रस्फुटित होने नहीं देते उसी प्रकार अष्टकमरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणु आत्माकी शुद्ध चेतनामें विकार उत्पन्न करते हैं-उसे अपने असलीरूपमें प्रकट होने नहीं देते । मेघोंके पूर्णतः विघटित होनेपर निर्मल चन्द्रिका (चाँदनी) की जैसी स्थिति होती है वैसी ही स्थिति शुद्धात्मज्योतिकी कर्मोंका पूर्णतः विलय होनेपर होती है-अर्थात वह अपने शुद्ध स्वरूपमें पूर्णतः विकसित हो जाती है । आत्मापर छाये कर्मोको योगी कैसे क्षण-भर में धुन डालता है धुनाति क्षणतो योगी कर्मावरणमात्मनि । मेघस्तोममिवादित्ये पवमानो महाबलः ॥६॥ 'आत्माके ऊपर आये हुए कर्मोके आवरणको योगी उसी प्रकार क्षण-भरमें धुन डालता है जिस प्रकार कि तीव्र गतिसे चलनेवाला महाबलवान् पवन सूर्यपर आये हुए मेघ समूहको क्षण-भरमें भगा देता है।' व्याख्या-यहाँ उस योगीके योग-माहात्म्यको दर्शाया गया है जो आत्माके ऊपर छाये हुए कर्म पटलोंको क्षणमात्रमें धुन डालता है। उस योगीकी शक्ति तीव्र वेगसे चलनेवाले उस प्रचण्ड पवनके समान होती है जो सूर्य के ऊपर छाये हुए बादलोंको क्षणमात्रमें छिन्न-भिन्न कर डालता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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