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पद्य १६-२३ ]
चूलिकाधिकार
२०३
व्याख्या—यहाँ पिछली बातको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जिस प्रकार रोगसे सर्वथा मुक्त रोगीके रोग नहीं रहता, परम नीरोगताकी प्राप्ति हो जाती है, उसी प्रकार जो पापादि कर्मोंसे सर्वथा मुक्त हो जाता है उसके फिर पर-पर्याय ग्रहणरूप संसार नहीं रहता अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें ही सदा स्थिरता बनी रहती है ।
किसके भोग संसारका कारण नहीं होते
शुद्धज्ञाने मनो नित्यं कार्येऽन्यत्र विचेष्टिते ।
यस्य तस्याग्रहाभावान् न भोगा भवहेतवः ||२०||
'जिसका मन सदा शुद्धज्ञानमें रमा रहता है, अन्य किसी कार्यमें जिसकी कोई प्रवृत्ति नहीं होती उसके भोग आसक्तिके अभावमें संसारका कारण नहीं होते ।'
व्याख्या -किस के भोग क्यों बन्धका कारण नहीं होते, इस बातको यहाँ दर्शाते हुए बतलाया गया है कि जिस योगीका मन सदा शुद्धज्ञानके आत्माके आराधनमें लीन रहता है अन्य किसी कार्य करनेमें जिसकी कोई विशेष रुचि नहीं होती, उसके सामान्यतः आहार ग्रहणादि रूप भोग अनासक्तिके कारण संसारके हेतुभूत बन्धके कारण नहीं होतेप्रत्युत इसके निर्जराके कारण बनते हैं ।
भोगोंको भोगता हुआ भी कौन परमपदको प्राप्त होता है मायाम्भो मन्यतेऽसत्यं तत्त्वतो यो महामनाः । अनुद्विग्नो निराशङ्कस्तन्मध्ये स न गच्छति ॥ २१॥ मायातोयोपमा भोगा दृश्यन्ते येन वस्तुतः । स भुञ्जानोऽपि निःसङ्गः प्रयाति परमं पदम् ||२२||
जो महात्मा मायाजलको - मृगमरीचिकाको- वस्तुतः असत्य समझता है वह उसके प्रति उद्विग्न आकुलित तथा शंकित नहीं होता और इसीलिए उसमें नहीं फँसता । जिसे भोग वास्तवमें मायाजल के समान दिखाई देते हैं वह महात्मा उन्हें भोगता हुआ भी ( आसक्तिके अभाव से ) निःसंग है और परमपदको प्राप्त होता है ।'
व्याख्या - शुद्ध ज्ञान-चर्यारत ज्ञानीके भोगबन्धके कारण नहीं, इस पिछली बातको एक उदाहरण-द्वारा स्पष्ट करते हुए यहाँ बतलाया गया है कि जिस प्रकार कोई महात्मा पुरुष जो मृगमरीचिकाको वास्तव में मिथ्या समझता है वह कभी उसके विषयमें शंकित तथा उसकी प्राप्तिके लिए आकुलित नहीं होता और इसलिए उसमें प्रवेश नहीं करता । उसी प्रकार जो महात्मा योगी भोगोंको वस्तुतः मायाजल के रूपमें देखता है वह उनको भोगता हुआ भी निःसंग होता है— जलमें कमलकी तरह अलिप्त रहता है - और इसलिए बन्धको प्राप्त न होनेसे परमपदको प्राप्त करनेमें समर्थ होता है ।
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भोगको तत्त्वदृष्टि से देखनेवालेको स्थिति
भोगांस्तत्त्वधिया पश्यन् नाभ्येति भवसागरम् | मायाम्भो जानता सत्यं गम्यते तेन नाध्वना ||२३||
'भोगोंको तत्त्वदृष्टि से देखता हुआ भवसागरको प्राप्त नहीं होता । ( ठीक है ) मायाजलको असत्य जलके रूपमें जानता हुआ उस मार्ग से नहीं जाता ।'
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