Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 247
________________ पद्य १०-१५] चूलिकाधिकार उक्त लक्षणकी दृष्टिसे पुण्यजन्य भोगों और योगजन्य ज्ञानको स्थिति ततः पुण्यभवा भोगा दुःखं परवशत्वतः । सुखं योगभवं ज्ञानं स्वरूपं स्ववशत्वतः ।।१३।। 'चूंकि जो पराधीन है वह सब दुःख है । अतः जो पुण्यसे उत्पन्न हुए भोग हैं वे परवश ( पराश्रित ) होनेके कारण दुःखरूप हैं। और योगसे उत्पन्न हुआ जो ज्ञान-विविक्तात्म परिज्ञान-है वह स्वाधीन होनेके कारण सुखरूप अपना स्वरूप है।' व्याख्या-सुख-दुःखके उक्त लक्षणोंकी दृष्टिसे यहाँ पुण्यसे उत्पन्न होनेवाले भोगोंको भी दुःखरूप बतलाया है; क्योंकि वे पुण्योदयके आश्रित हैं—पराधीन हैं-और स्वकीय ध्यानबलसे उत्पन्न होनेवाले शुद्धात्मज्ञानको सुखरूप बतलाया है; क्योंकि वह स्वाधीन है और अपना स्वभाव है। निर्मल ज्ञान स्थिर होनेपर ध्यान हो जाता है ध्यानं विनिमलज्ञानं पुंसां संपद्यते स्थिरम् । हेमक्षीणमलं किं न कल्याणत्वं प्रपद्यते ॥१४॥ __पुरुषोंका-मानवोंका-निर्मल ज्ञान जब स्थिर होता है तो वह 'ध्यान' हो जाता है। (ठीक है ) किट्ट-कालिमादिरूप मलसे रहित हुआ सुवर्ण क्या कल्याणपनेको प्राप्त नहीं होता?होता ही है, उस शुद्ध सुवर्णको 'कल्याण' नामसे पुकारा जाता है।' व्याख्या-यहाँ योगका ध्यान शब्दसे उल्लेख करते हुए लिखा है कि जब निर्मलज्ञान स्थिर होता है तब वह 'ध्यान' कहलाता है; उसी प्रकार जिस प्रकार कि सुवर्ण जब मलरहित होता है तो 'कल्याण' नामको प्राप्त होता है। निर्मल ज्ञान भी ध्यानरूपमें स्थिर होकर कल्याणकारी होता है। भोगका रूप और उसे स्थिर-वास्तविक समझनेवाले गन्धर्वनगराकारं विनश्वरमवास्तवम् । स्थावरं वास्तवं भोगं बुध्यन्ते मुग्धबुद्धयः ॥१५॥ 'जो मूढबुद्धि हैं-जिन्हें वस्तुस्वरूपका ठीक परिज्ञान नहीं-वे गन्धर्वनगरके आकार समान विनाशीक और अवास्तविक भोगसमूहको स्थिर जोर वास्तविक समझते हैं।' व्याख्या-जिन पुण्योत्पन्न भोगोंका १३वें पद्यमें उल्लेख है वे आकाशमें रंग-बिरंगे बादलोंसे स्वतः बने गन्धर्वनगरके समान विनश्वर और अवास्तविक हैं उन्हें मूढ बुद्धि स्थिर और वास्तविक समझते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है। यहाँ प्रत्यक्ष में नित्य दिखाई देनेवाले बादलोंके आकारकी क्षणभंगुरताकी ओर संकेत करके भोगोंको अस्थिरता और निःसारताको उसके समकक्ष दर्शाया गया है और जो लोग भ्रमवश विषयभोगोंको ऐसा नहीं समझते उन्हें मोहसे दूषितमति सूचित किया है । १. मु हेमं । २. मु बुध्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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