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योगसार-प्राभूत
[अधिकार ८ व्याख्या-यहाँ जिन-भाषित चारित्रके अनुष्ठानका दो प्रकारसे महत्त्व ख्यापित किया गया-एक तो यह कि वह शुभध्यानके विरोधी ध्यानोंका निरोधक है दूसरे उससे शुद्धात्माके ध्यानकी शक्ति, पात्रता अथवा भोग्यता प्राप्त होती है, बिना इस चारित्रका अनुष्ठान किये वह नहीं बनती। इसीसे व्यवहारचारित्रको निश्चय चारित्रका साधन कहा गया है। उसके अनुष्ठान-द्वारा शक्ति एवं पात्रता प्राप्त किये बिना शुद्ध आत्माके ध्यानरूप निश्चय चारित्र नहीं बनता। जो लोग व्यवहारचारित्रको निश्चय चारित्रका सहायक न मानकर यों ही फालतू मदकी बात अथवा बेकार (व्यर्थ ) समझते हैं उन्हें इस कथनसे अच्छी खासी शिक्षा लेनी चाहिए और अपनी भूल-भ्रान्तिको मिटा देना चाहिए। यदि व्यवहार-चारित्र निश्चय चारित्रके साधनमें किसी प्रकारसे भी सहायक नहीं होता तो जिनेन्द्र भगवान्को उसके कथनकी आवश्यकता ही क्या पड़ती ? अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिसे ही चारित्रकी वह भूमिका तैयार होती है जहाँ खड़े होकर शुद्धात्माका आराधन किया जा सकता है ।
उक्त चारित्रके अनुष्ठाता योगीको स्थिति राग-द्वेष-प्रपञ्च-भ्रम-मद-मदन-क्रोध-लोभ-व्यपेतो
यश्चारित्रं पवित्र चरति चतुरधीलोकयात्रानपेक्षः । स ध्यात्वात्म-स्वभावं विगलितकलिलं नित्यमध्यात्मगम्यं
त्यक्त्वा कर्मारि-चक्र परम-सुख-मयं सिद्धिसद्म प्रयाति ॥१०॥ इति श्रीमदमितगति-निःसंग-योगिराज-विरचिते योगसारप्राभृते चारित्राधिकारः ॥८॥
'जो चतुरबुद्धि योगी राग-द्वेष-प्रपंच ( छलादि ) भ्रम, मद, मान-अहंकार, मदन ( काम ) क्रोध और लोभसे रहित हुआ लोकयात्राको-दुनियाके व्यवहारकी अपेक्षा न रखता हुआ ( उक्त ) पवित्र चारित्ररूप प्रवृत्त होता है वह अध्यात्मगम्य स्वभावको सदा निष्कलंक रूपमें ध्यान करके और कर्मशत्रुओंके चक्रको भेद कर परम सुखमय सिद्धि-सदन (मुक्ति महल) को प्राप्त होता है।'
व्याख्या-यह आठवें अधिकारका उपसंहार-पद्य है। इसमें अधिकार-वर्णित पवित्र चारित्रका अनुष्ठान करनेवाले योगीके तीन खास विशेषण दिये गये हैं--एक राग-द्वेषप्रपंच-भ्रम-मद-मदन-कोध-लोभसे रहित होना, दूसरा बुद्धिकी चतुरताका होना और तीसरा लोकयात्राकी अपेक्षा न रखना। इन गुणोंसे युक्त हुआ योगी जब आत्मस्वभावका ध्यान करता है, जो कि कर्म कलंकसे रहित, शाश्वत और आत्मगम्य है, तब उसके साथ दर्शनज्ञानावरणादि कर्मोंका जो समूह है वह सब विच्छिन्न तथा विभिन्न हो जाता है और इससे योगी निर्बन्ध तथा निर्लेप सिद्धिके उस चरमधामको पहुँच जाता है जो परम सुखस्वरूप है, और जिसकी स्थिति लोकके अग्रभागमें सिद्ध शिलासे ऊपर है। इस प्रकार श्री अमितगति-निःसंगयोगिराज-विरचित योगसार-प्राभृतमें, चारित्राधिकार
नामका भाठवाँ अधिकार समाप्त हुभा ॥८॥
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