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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ८ 'यह प्राणी अर्थ और काम ( पुरुषार्थ ) के साधनमें बिना उपदेशके भी निपुण होता हैस्वतः प्रवृत्ति करता है--परन्तु धर्म ( पुरुषार्थ ) के साधनमें बिना शास्त्रोंके-शास्त्रोपदेशके अभावमें-प्रवृत्त नहीं होता, इसलिए शास्त्रमें आदरका होना हितकारी है।'
व्याख्या-यहाँ शास्त्रमें आदर और उसकी आवश्यकताकी बातको यह कहकर और पुष्ट किया गया है कि संसारी प्राणी अर्थोपार्जन और कामसेवन इन दो पुरुषार्थों में तो बिना किसीके उपदेशके स्वतः प्रवीण होता तथा प्रवृत्ति करता है परन्तु धर्माचरणमें बिना शास्त्रके नहीं प्रवर्तता अतः आगमशास्त्रमें आदर करना हितरूप है ।
अर्थकामाविधानेन तदभावः परं नृणाम् ।
धमोविधानतोऽनर्थस्तदभावश्च जायते ॥७१॥ 'अर्थ और कामके साधनमें प्रवृत्ति न करनेसे उनका अभाव ही होता है। परन्तु धर्मके साधनमें प्रवृत्ति न करनेसे धर्मका अभाव ही नहीं किन्तु अनर्थ भी घटित होता है।
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिन तीन पुरुषार्थोंका उल्लेख है उनमें प्रवृत्तिके न होनेसे जो दोष आता है उसे इस पद्य में बतलाते हुए लिखा है कि अर्थ-कामको न करनेसे तो मनष्योंके उनका अभाव ही घटित होता है, परन्तु धर्मका अनुष्ठान न करनेसे धर्मका अभाव ही नहीं किन्तु दूसरा अनर्थ भी घटित होता है जिसे पापाचार प्रवृत्तिके रूपमें समझना चाहिए और इस तरह मुनियोंको धर्मके साधनभूत आगममें सादर प्रवृत्त होनेके लिए प्रेरित किया है।
तस्माद्धर्मार्थिभिः शश्वच्छास्त्र यत्नो विधीयते ।
मोहान्धकारिते लोके शास्त्रलोक-प्रकाशकम् ॥७२॥ 'अतः जो धर्मके अभिलाषी हैं उनके द्वारा सदा शास्त्रमें शास्त्रोपदेशकी प्राप्तिमें-यत्न किया जाता है । मोहरूपी अन्धकारसे व्याप्त लोकमें शास्त्र (ही) लोकका प्रकाशक है-लोकको यथार्थरूपमें दिखलानेवाला है।'
___ व्याख्या-धर्मसाधनाके लिए आगम-शास्त्रकी उक्त आवश्यकताको देखते हुए धर्मार्थी साधुओंका यह स्पष्ट कर्तव्य है कि वे सदा आगम-शास्त्रके अध्ययन, श्रवण तथा मननका यत्न करें। वस्तुतः मोहान्धकारसे व्याप्त लोकमें शास्त्र ही लोकके स्वरूपका सच्चा प्रकाशक है।
यहाँ पीछे तथा आगे जिस शास्त्र (आगम ) का उल्लेख है वह वही है. जिसका स्वरूप स्वामी समन्तभद्रने समीचीन धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) के निम्न पद्यमें दिया है -
आप्तोपज्ञमनुल्लध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम्।।
तत्त्वोपदेशकृत्सावं शास्त्रं कापथ-घट्टनम् ॥९॥ अर्थात्-'जो आप्तोपज्ञ हो-आप्तके द्वारा प्रथमतः ज्ञान होकर उपदिष्ट हुआ होअनुल्लंध्य हो-उल्लंघनीय अथवा खण्डनीय न होकर ग्राह्य हो, दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) और इष्ट ( अनुमानादि-विषयक-स्वसम्मत सिद्धान्त) का विरोधक न हो-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसमें कोई बाधा न आती हो और न पूर्वापरका कोई विरोध ही पाया जाता हो, तत्त्वोपदेशका कर्ता हो-वस्तुके यथार्थस्वरूपका प्रतिपादक हो, सबके लिए हितरूप हो और कुमार्गका निराकरण करनेवाला हो, उसे 'शास्त्र'-परमार्थ भागम-कहते हैं।'
इसकी विशेष व्याख्याके लिए समीचीन धर्मशास्त्र पृष्ठ ४३,४४ देखना चाहिए ।
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