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पद्य ६४-७०] चारित्राधिकार
१८५ व्याख्या-साधु तपस्वीको कौन काम नहीं करने चाहिए उनकी यहाँ संक्षेपमें सूचना की गयी है। वे तीन काम हैं-एक तो जिससे संयमको-मूलगुणोंके अनुष्ठानको हानि पहुँचे, दूसरा वह जिससे लोककी विराधना हो-लौकिक जनोंको पीड़ा पहुँचे और तीसरा वह जिससे अपनेको संक्लेश मालूम पड़े-अपने परिणामोंमें संल्लिष्टता आती हो। ऐसे सब कार्य पापबन्धके कारण होते हैं।
आगमकी उपयोगिता और उसमें सादर प्रवृत्तिकी प्रेरणा
'एकाग्रमनसः साधोः पदार्थेषु विनिश्चयः ।
यस्मादागमतस्तस्मात् तस्मिन्नाद्रियतां तराम् ॥६॥ 'एकाग्रचित्तके धारक साधुके कि आगमसे पदार्थोंमें निश्चय होता है अतः भागममें विशेष आदरसे प्रवृत्त होना चाहिए।'
व्याख्या--आत्मा अथवा मुक्तिका साधन करनेवाले श्रमण-साधुका यहाँ 'एकाग्रमन' विशेषण दिया है, जो बहुत ही युक्तियुक्त है, क्योंकि मनकी एकाग्रताके बिना साधना नहीं बनती और साधनाके बिना साधुता नाममात्रकी ही रह जाती है। मनकी एकाग्रता पदार्थों के निश्चयपर अवलम्बित है। जिस साधुको अपने शुद्ध आत्मस्वरूपका, पर-पदार्थोंका, परपदार्थों के संयोग-वियोग हेतुओंका, कर्मपुद्गलों तथा उनकी शक्तिका और इस विश्वके रूपका ठीक निश्चय नहीं उसका चित्त डावाँडोल होनेके कारण स्थिरताको प्राप्त नहीं होता। पदार्थोके निश्चयकी प्राप्ति आगमसे-सर्वज्ञदेशित अथवा सर्वज्ञदेशनानुसारी शास्त्रोंसे-होती है अतः आगम-शास्त्रोंके प्रति विशेषतः आदरभाव रखनेकी यहाँ साधुओंको प्रेरणा की गयी है।
परलोकविधौ शास्त्रं प्रमाणं प्रायशः परम् ।
यतोऽत्रासन्नभव्यानामादरः परमस्ततः ॥६६॥ 'च कि परलोकके सम्बन्धमें शास्त्र प्रायः उत्कृष्ट परमप्रमाण हैं. इसलिए जो निकट भव्य हैं उनका शास्त्रमें परम आदर होता है।'
' व्याख्या-यहाँ यह बतलाया है कि जो निकट भव्य साधु होते हैं उनका आगममें परम आदर होता है और उसका कारण यह है कि परलोकके विषयमें अथवा अतीन्द्रिय सूक्ष्म पदार्थों के सम्बन्धमें प्रायः शास्त्र ही प्रमाणभूत है; क्योंकि वह घातिया कर्मोंके क्षयसे समुद्भूत हुए अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयके धारक सर्वज्ञकै द्वारा देशित ( कथित ) होता है। ऐसा सर्वज्ञ क थतप्रमाण ही यहाँ तथा आगेके पद्योंमें विवक्षित है।
उपदेशं विनाप्यङ्गी पटीयानर्थकामयोः । धर्मे तु न विना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः ॥७॥
१. एयग्गगदो समणो एयरगं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्तो आगमदो आगमचेट्टा तदो जेट्टा ॥३-३२:। --प्रवचनसार ।
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