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पद्य ५८-६३ ]
चारित्राधिकार प्रार्थना तथा संकेतके प्राप्त होनी चाहिए। यदि थाल आदिमें रखे हुए किसी भोजनको देनेके लिए अंगुलीका इशारा भी किया जाता है तो उस भोजनका ग्रहण यथालब्ध भिक्षाकी कोटिसे निकल जाता है। इसी तरह जो साधु भोजनके आगमाविरुद्ध निर्दोष होनेपर भी उसे अपनी पसन्द तथा रुचिका न होने आदिके कारण नहीं लेता वह भी यथालब्ध भिक्षाका भोजी नहीं रहता।
वजित मांस-दोप 'पक्वेऽपवे सदा मांसे पच्यमाने च संभवः । तज्जातीनां निगोदानां कथ्यते जिनपुङ्गवः ॥६०॥ मांसं पक्वमपक्वं वा स्पृश्यते येन भक्ष्यते ।
अनेकाः कोटयस्तेन हन्यन्ते किल जन्मिनाम् ॥६१॥ 'मांस चाहे कच्चा हो, पक्का हो या पक रहा हो उसमें जिनेन्द्रोंने तज्जातीय निगोदिया जीवोंका (निरन्तर) उत्पाद कहा है (अतः) जिसके द्वारा कच्चा या पक्का मांस छुआ जाता है, खाया जाता है उसके द्वारा निश्चित रूपसे अनेक कोटि-करोड़ों जीवोंका घात होता है।'
व्याख्या-भोजनमें जिस मांसके ग्रहणका पिछले पद्य में निषेध है और जो द्वीन्द्रियादित्रस जीवोंके रस-रक्तादि-मिश्रित कलेवरसे निष्पन्न होता है; उसमें क्या दोष है उसे इन दोनों पद्योंमें स्पष्ट करते हुए यह सूचित किया गया है कि जिनेन्द्र देवोंके कथनानुसार मांस चाहे किसी भी अवस्थामें क्यों न हो उसमें तज्जातीय निगोदिया जीवोंका (जो एक स्वाँसमें अठारह बार जन्म-मरण करते रहते हैं ) बराबर उत्पाद बना रहता है और इसलिए जो कोई भी मांसको छूता या खाता है वह बहुतर सूक्ष्म जीवोंकी हत्याका भागी होता है।
मधु-दोष तथा अन्य अनेषणीय पदार्थ बहुजीव-प्रघातोत्थं बहु-जीवोद्भवास्पदम् । असंयम-विभीतेन ग्रेधा मध्वपि वज्यते ॥६२॥ कन्दो मूलं फलं पत्र नवनीतमगृध्नुभिः ।
अनेषणीयमग्राह्यमन्नमन्यदपि त्रिधा ॥६३।। 'जो असंयमसे भयभीत है उस साधुके द्वारा मन-वचन-कायसे वह मधु त्यागा जाता है जो बहुजीवोंके घातसे उत्पन्न हुआ और बहुत जीवोंको उत्पत्तिका स्थान है। जो भोजनमें लालसा रहित साधु हैं उनके द्वारा वह कन्द, मूल, फल, पत्र, मक्खन जो अनेषणीय ( अभक्ष्य ) है और दूसरा ( उद्गमादि दोपोंके कारण') अग्राह्य अन्न ( भोजन ) भी मन-वचन-कायसे और कृतकारित-अनुमोदनासे त्यागा जाता है।'
१. पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । संतत्तियमुववादी तज्जादीणं णिगोदाणं ॥३-२९॥ (क) जो पक्कमपक्कं वा पेसों मंसस्स खादि फासदि वा । सो किल णिहणदि पिंड जीवाणमणेगकोडीणं 1.३-२९।। (ख)-प्रवचनसार । २. आ तज्जातानां । ३. आ व्या निगोतानां । ४. आ व्या जन्मिनां किल । ५. उद्गम-उत्पादनादि दोषोंका स्वरूप जानने के लिए मूलाचार आदि ग्रन्थोंको देखना चाहिए।
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