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पद्य ५२-५७] चारित्राधिकार
१७९ व्यावहारिक व्यंग सल्लेखनाके समय अव्यंग नहीं होता 'यो व्यावहारिको व्यङ्गो मतो रत्नत्रय-ग्रहे ।
न सोऽपि जायतेऽव्यङ्गः साधुः (धोः) सल्लेखना-कृतौ ॥५४॥ 'जो रत्नत्रय ( जिनलिंग ) के ग्रहणमें व्यावहारिक व्यंग माना गया है वह सल्लेखनाके अवसरपर साधुके अव्यंग नहीं हो जाता।'
व्याख्या-यहाँ सल्लेखनाके अवसरपर साधु बननेवालेके विषयमें व्यावहारिक व्यंगकी बातको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो रत्नत्रयरूप जिनलिंगके ग्रहणमें व्यावहारिक व्यंग पद्य न० ५२ के अनुसार माना गया है वह सल्लेखनाके अवसरपर अव्यंग नहीं हो जाता-व्यंग ही रहता है। अर्थात् सल्लेखनाके अवसरपर जो साधु-मुनि बनना चाहे और उक्त प्रकारके व्यंगोंमें किसी व्यंगको लिये हए हो तो वह मुनिदीक्षाको प्राप्त नहीं हो सकताउसे दिगम्बर मुनिदीक्षा नहीं दी जा सकती।
'यस्यैह लौकिकी नास्ति नापेक्षा पारलौकिकी ।
युक्ताहारविहारोऽसौ श्रमणः सममानसः ॥५५॥ "जिसके इस लोकको और परलोकको अपेक्षा नहीं है, जो योग्य आहार-विहारसे युक्त है और समचित्तका धारक है वह 'श्रमण' है।'
व्याख्या-जिसके धर्मसाधनमें इस लोककी तथा परलोककी अपेक्षा ( दृष्टि ) नहीं रहती-जो सब कुछ आत्मीय कर्तव्य समझकर करता है; लोक-दिखावा, लोकाराधन, लौकिक कार्यसिद्धि अथवा परलोकमें स्वर्गादिककी प्राप्तिके लिए कुछ नहीं करता-और अपने चित्तको सम-राग-द्वेषसे रहित-रखता हुआ योग्य आहार-विहार किया करता है उस साधुको 'श्रमण' कहते हैं, जिसका मूल प्राकृतरूप 'समण' है और जो अपने उस रूपमें 'सम-मानस' का वाचक है । सम-मानस, समचित्त, समाशय-जैसे शब्द एक ही अर्थके द्योतक हैं। 'युक्ता हार-विहार'का आशय यहाँ आगमके अनुकूल उद्गम-उत्पादनादि दोषोंसे रहित, भोजन तथा विहरनकी प्रवृत्तिसे है, जिसकी विशेष जानकारी मूलाचार, भगवती आराधनादि-जैसे ग्रन्थोंसे प्राप्त की जा सकती है।
कौन श्रमण अनाहार कहे जाते हैं कपाय-विकथा-निद्रा-प्रेमाक्षार्थ-पराङ्मुखाः । जीविते मरणे तुल्याः शत्रौ मिो सुखेऽसुखे ॥५६॥ आत्मनोऽन्वेषणा येषां भिक्षा येषामणेषणा । संयता सन्त्यनाहारास्ते सर्वत्र समाशयाः ॥५७।।
१. सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणा अरिहो ॥३-२५॥ -प्रवचनसार। २. व्या विंगाः । ३. इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥३-२६।। -प्रवचनसार । ४. आ व्या यस्येह। ५. जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा॥३-२७॥ -प्रवचनसार।
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