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पद्य ४७-५१]
चारित्राधिकार शशाङ्कामल-सम्यक्त्वाः समाचार-परायणाः ।
सचेलास्ताः स्थिता लिङ्ग तपस्यन्ति विशद्धये ॥५०॥ __ 'जो स्त्रियाँ चन्द्रमाके समान निर्मल सम्यक्त्वसे युक्त हैं और समीचीन आचारमें प्रवीण हैं वे जिलिंगमें सवस्त्र रूपसे स्थित हुई आत्मविशुद्धिके लिए तपश्चरण करती हैं।'
व्याख्या-यहाँ उन ऊँचे दर्जेकी साध्वियों के लिए भी सचेल ( वस्त्रसहित ) रहनेका विधान किया है जो अति निर्मल सम्यक्त्वकी धारिका हैं और समाचारमें-सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रके अनुष्ठानमें-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तप और वीर्य रूप पंचाचारके पालनमें-समताकी साधनामें अथवा उस समाचारकी आराधनामें, जिसका मूलाचारमें एक अधिकार (न० ४) ही अलगसे दिया गया है, प्रवीण हैं। ऐसी साध्वी स्त्रियाँ सवस्त्र रह कर अपनी आत्मशुद्धिके लिए तपश्चरण करती हैं।
कौन पुरुष जिनलिंग ग्रहणके योग्य शान्तस्तपः क्षमोऽकुत्सो वर्णेष्वेकतमस्त्रिषु ।
कल्याणाङ्गो नरो योग्यो लिङ्गस्य ग्रहणे मतः ॥५१॥ 'जो मनुष्य शान्त है, तपश्चरणमें समर्थ है, दोषरहित है, तीन वर्ण ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यमें से किसी एक वर्णका धारक है और कल्याणरूप सुन्दर शरीरके अंगोंसे युक्त है वह जिनलिंगके ग्रहणमें योग्य माना गया है।'
व्याख्या-जिस जिनलिंगका रूप इस अधिकारके आरम्भमें दिया गया है उसको धारण करनेका पात्र कौन है उसकी यहाँ देशना की गयी है। वह एक तो स्वभावसे शान्त होना चाहिए, दूसरे तपश्चरण-सम्बन्धी कष्टोंके सहनकी उसमें सामर्थ्य होनी चाहिएअति बाल, तथा अति वृद्ध अवस्थाको लिये हुए न होना चाहिए-तीसरे वह कुत्सारहित होना चाहिए-लोकमें किसी दुराचारादिके कारण बदनाम न होना चाहिए, चौथे ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य इन तीन वर्षों में से किसी भी एक वर्णका धारक पुरुष होना चाहिएस्त्री नहीं, और पाँचवें शरीरसे नीरोग होना चाहिए। ये बातें यदि नहीं हैं तो जिनदीक्षाका पात्र नहीं है।
___ यहाँ एक बात उल्लेखनीय है और वह यह कि श्री जयसेनाचार्यने प्रवचनसारकी 'वण्णेसु तीसु एक्को' इस गाथाकी टीका में "एवंगुणविशिष्टो पुरुषो जिनदोक्षाग्रहणे योग्यो भवति" लिखकर यह भी लिखा है कि "यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि" जिसका आशय है कि योग्यताके अनुसार सत् शूद्र और आदि शब्दसे म्लेच्छ भी जिनदीक्षाका पात्र हो सकता है। 'यथा योग्य' पदमें उसकी दृष्टि संनिहित है और वह इस बातको सूचित करती है कि सब सत् शूद्रादिक नहीं किन्तु कुछ खास योग्यता प्राप्त शूद्रादिक, जैसे म्लेच्छ खण्डोंसे, जहाँ कोई वर्णव्यवस्था नहीं, तथा हिंसामें रति और मांसभक्षणमें प्रीति आदि दुराचार चलता है,
१. आ सचेलताः। २. वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा। सुमहो' कुंछारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोगो ॥३-२५।। (ज)-प्रवचनसार ।
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