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१७६ योगसार-प्राभृत
[अधिकार८ स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा बहुलता पायी जाती है। इस प्रमादके अनन्तर विषाद, ममता, ग्लानि, ईर्ष्या, भय और उस मायाचार दोषको गिनाया गया है जो प्रयत्न-पूर्वक न होकर स्वाभाविक होता है। ये सब दोष मुक्तिकी प्राप्तिमें बाधक हैं अतः स्त्रियोंको अपनी उस पर्यायसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती।
'न दोषेण विना नार्यो यतः सन्ति कदाचन ।
गात्र च संवृतं तासां संवृतिविहिता ततः ॥४७॥ 'कि स्त्रियाँ ( पूर्वोक्त दोषोंमें-से किसी एक ) दोषके बिना कदाचित् भी नहीं होती और गात्र उनका स्पष्टतः संवत (ढका हुआ) नहीं होता, इससे उनके वस्त्रावरणको व्यवस्था की गयी है।'
व्याख्या-पिछले पद्योंमें जिन दोषोंका उल्लेख है वे सब यदि एकत्र न भी होवें तो भी उनमें से कोई-न-कोई एक दोष स्त्रियों में ज़रूर होता है, ऐसा यहाँ नियम किया गया है और वह एक दोष भी शुद्धात्मस्वभावके विपरीत होनेके कारण मुक्तिकी प्राप्तिमें बाधक होता है । मुक्तिकी प्राप्ति में बाधक दोषके कारण और स्त्रियोंका गात्र स्वयं संवृत-आच्छादित न होनेके कारण उसके वस्त्रावरणसे आच्छादनको व्यवस्था की गयी है।
शैथिल्यमार्तवं चेतश्चलनं श्रा(स्रा)वणं तथा । तासां सूक्ष्म-मनुष्याणामुत्पादोऽपि बहुस्तनौ ॥४८॥ कक्षा-श्रोणि-स्तनाद्येषु देह-देशेषु जायते ।
उत्पत्तिः सूक्ष्म-जीवानां यतो, नो संयमस्ततः॥४६।। 'चूंकि स्त्रियोंके शरीरमें शिथिलता, ऋतुकाल ( रक्तोत्पाद ), रक्तस्राव, चित्तकी चंचलता, लब्धि अपर्याप्तक सूक्ष्म मनुष्योंका बहुत उत्पाद और कांख-योनि-स्तनादिक शरीरके अंगोंमें सूक्ष्म जीवोंकी बहुत उत्पत्ति होती है इसलिए उनके ( सकल ) संयम नहीं बनता।'
व्याख्या-यहाँ स्त्रियोंमें पाये जानेवाले दूसरे कुछ ऐसे दोषोंको उल्लेखित किया है जो प्रायः शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं और जिनके कारण स्त्रियों के पूर्णतः संयमका पालन नहीं बनता। पूर्णतः संयमका न पालन भी मुक्तिकी प्राप्तिमें बाधक है। जब स्त्रियोंके स्वभावतः कुछ शारीरिक तथा मानसिक दोषोंके कारण पूर्णतः संयम नहीं बनता और इसलिए मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती तब उनके शरीरको बिलकुल नग्न दिगम्बर रूपमें रखने की आवश्यकता नहीं और इसलिए वस्त्रसे उसके आच्छादनकी व्यवस्था की गयी है।
१.ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि सं उडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरण ।। ३-२५ (ङ)-प्रवचनसार । २. चित्तस्सावो तासि सिथिल्लं अत्तवं च पक्खलणं । विज्जदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणु आणं ॥ ३.२५ (च) ॥ लिंगम्हि य इत्थोणं थणंतरे णाहि-कक्ख-देसेसु । भणिदो सुहमुप्पादो तासिं कह संजमो होदि ॥ ३-२५ (छ)।-प्रवचनसार । लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिो सुहमो काओ. तासि कह होइ पन्वज्जा ॥२४॥ चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसि इत्थीसु णऽसंकया झाणं ॥२६॥ -सुत्तपाहुड ।
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