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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ४
को करता हुआ भी धूलिसे धूसरित नहीं होता उसी प्रकार राग-द्वेषसे रहित हुआ जीव कर्मक्षेत्र में उपस्थित हुआ अनेक प्रकारकी कायचेष्टादि करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता । श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारके बन्धाधिकार में इस विपयका जो कथन पाँच गाथाओं में स्पष्ट किया है उस सबका सार यहाँ इन दो पद्योंमें खींचकर रखा गया है ।'
सर्वव्यापारहीनोऽपि कर्ममध्ये व्यवस्थितः । रेणुभिव्र्याप्यते चित्रैः स्नेहाभ्यक्ततनुयथा ||७|| समस्तारम्भ-हीनोsपि कर्ममध्ये व्यवस्थितः । कषायाकुलितस्वान्तो व्याप्यते दुरितैस्तथा ||८||
'जिस प्रकार शरीर में तैलादिकी मालिश किये हुए पुरुष धूलिसे व्याप्त कर्मक्षेत्र में बैठा हुआ समस्त व्यापारसे हीन होते हुए भी कर्मक्षेत्र में स्वयं कुछ काम न करते हुए भी नाना प्रकारकी धूलिसे व्याप्त होता है, उसी प्रकार जिसका चित्त क्रोधादि कषायोंसे आकुलित है वह कर्मके मध्यमें स्थित हुआ समस्त आरम्भोंसे रहित होनेपर भी कर्मोंसे व्याप्त होता है ।'
व्याख्या - यहाँ उसी पिछले पद्य (नं० ४) के आदिमें जो यह बतलाया है कि राग और द्वेषसे युक्त हुआ जीव कर्मका बन्ध करता है उसे यहाँ खूब तेलकी मालिश किये हुए सचि
न देहधारी मनुष्यके दृष्टान्तसे स्पष्ट किया गया है - जिस प्रकार तेलसे लिप्तं गात्रका धारक मनुष्य धूलिबहुल कर्मक्षेत्र में बैठा हुआ स्वयं सब प्रकारकी कायादि चेष्टाओंसे रहित होता हुआ भी धूलिसे धूसरित होता है उसी प्रकार कर्मक्षेत्र में उपस्थित हुए जिस जीवका चित्त कषायसे अभिभूत है- रागादिरूप परिणत है - वह सब प्रकार के आरम्भोंसे रहित होनेपर भी कर्मों से बन्धको प्राप्त होता है । इस रागादिरूप कपाय भाव में ही वह चेप है जो कुछ न करते हुए भी कर्मको अपनेसे चिपकाता है। इसीसे बन्धका स्वरूप बतलाते हुए अधिकार के प्रारम्भमें हो उसका प्रधान कारण कषाययोग बतलाया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसार के बन्धाधिकारके प्रारम्भमें इस विषयका जो कथन गाथा २३७ से २४१ में किया है उसीका यहाँ उक्त दो पद्योंमें सार खींचा गया है ।
अमूर्त आत्माका मरणादि करनेमें कोई समर्थ नहीं फिर भी मारणादिके परिणामसे बन्ध
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मरणं जीवनं दुःखं सौरूपं रक्षा निपीडनम् । जातु कर्तुममूर्तस्य चेतनस्य न शक्यते || || विदधानः परीणामं मारणादिगतं परम् । बध्नाति विविधं कर्म मिध्यादृष्टिर्निरन्तरम् ||१०||
'अमूर्तिक- चेतनात्माका मरण, जीवन, सुख, दुःख, रक्षण और पीड़न करनेके लिए (कोई भी) कभी समर्थ नहीं होता । मिथ्यादृष्टि जीव परके मारणादिविषयक परिणाम करता हुआ 'निरन्तर नाना प्रकारके कर्मोंको बाँधता है ।'
१. देखो, समयसार गाथा, न० २४३ से २४६ । २ व्या कर्मममृर्त्तस्य ।
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