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११२ योगसार-प्राभृत
[अधिकार ५ निर्मित है-कर्मोके आधार पर बना तथा टिका हुआ है-जबकि जीव अपने कर्मोके आधार पर अपना अस्तित्व नहीं रखता, और इसलिए उसे परकृत और पराश्रितके काममें प्रवृत्त होकर अपनी शक्तिका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए-जितने समयके लिए भी शक्तिके उस दुरुपयोगको बचाया जा सके उतने समयके लिए उसे अवश्य बचाना चाहिए, यह कायोत्सर्गकी दृष्टि है, जिसे 'ज्ञात्वा' पदके द्वारा जाननेकी प्रेरणा की गयी है।
यः षडावश्यकं योगी स्वात्मतत्व-व्यवस्थितः ।
अनालस्यः करोत्येव संवृतिस्तस्य रेफसाम् ॥५३॥ 'जो योगी अपने आत्मतत्त्वमें विशेषतः अवस्थित और निरालस्य हुआ ( उक्त प्रकारसे ) षडावश्यकको-अवश्य करणीय सामायिकादि छहों क्रियाओंको-करता है उसके पापोंकर्मोका संवर ही होता है।'
व्याख्या-जिन षट् कर्मों-कार्योंका पिछले पद्योंमें उल्लेख है उन्हें यहाँ स्पष्ट रूपसे 'आवश्यक' नाम दिया गया है, जिसका आशय है अवश्य ही नित्य करने योग्य, उन कार्योके करनेवालेको 'योगी' नाम दिया है, जिसका अभिप्राय है काय-वचन-मन-रूप त्रियोगोंकी साधना करनेवाला-उन्हें अपने अधीन रखनेवाला-साधु-मुनि; और उसके दो विशेषण दिये गये हैं--एक 'स्वात्मतत्त्व व्यवस्थित' और दूसरा 'अनालस्य' जिसमें पहला इन कार्योंको करने के अधिकारित्वकी सूचना करता है जैसा कि ४७वें पद्य की व्याख्यामें व्यक्त किया गया है, और दूसरा फलकी यथेष्ट रूपमें साधनासे सम्बद्ध है; क्योंकि आलस्यसहित अनादरपूर्वक किये हुए कम यथेष्ट फलको नहीं फलते । अन्तमें इन सभी आवश्यक-कृत्योंक फलका निर्देश किया है और वह है ज्ञानावरणादि कर्मोके आस्रवका निरोध, जो उक्त दोनों विशेषणविशिष्ट योगीको प्राप्त होता है। अतः इन छहों क्रियाओंके करनेमें योगीको अपने इन दोनों विशेषणोंको खास तौरसे ध्यानमें रखना चाहिए, जिनके बिना यथेष्ट फलसम्पत्ति नहीं बनती।
सम्यग्ज्ञानपरायण आत्मज्ञ योगी कर्मों का निरोधक मिथ्याज्ञानं परित्यज्य सम्यग्ज्ञानपरायणः ।
आत्मनात्मपरिज्ञायी विधत्ते रोधमेनसाम् ॥५४॥ "मिथ्याज्ञानको छोड़कर जो सम्यग्ज्ञानमें तत्पर है और आत्माके द्वारा आत्माका ज्ञाता है वह कर्मों का निरोध करता है-कर्मों के आस्रवको रोकता है।'
व्याख्या-यहाँ पडावश्यक-बिधातासे भिन्न एक दूसरे ही संवर अधिकारीका निर्देश है और वह है जो मिथ्याज्ञानका परित्याग कर सम्यग्ज्ञानमें तत्पर रहता है और अपनी आत्माको किसी भी पर पदार्थकी अपेक्षा न रखकर अपने आत्माके द्वारा ही जानता है। ऐसा ज्ञाता बिना कोई दूसरा अनुष्ठान किये ही कर्मोंके आस्रवको रोकनेमें समर्थ होता है।
कोई द्रव्यसे भोजक तो भावसे अभोनक, दूसरा इसके विपरीत द्रव्यतो भोजकः कश्चिद्धावतोऽस्ति त्वभोजकः। भावतो भोजकस्त्वन्यो द्रव्यतोऽस्ति त्वभोजकः ॥५५॥
१. पापानां ।
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