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योगसार- प्राभृत
जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥७२॥
श्री कुन्दकुन्दाचार्यने तो प्रवचनसारमें यहाँतक लिखा है कि जो लौकिकजनोंका संसर्ग नहीं छोड़ता है वह निश्चित सूत्रार्थपद ( आगमका ज्ञाता ), शमितकषाय और तपमें बढ़ा-चढ़ा होते हुए भी संयत-मुनि नहीं रहता ।' संसर्गके दोषसे अग्निके संसर्गको प्राप्त जलकी तरह अवश्य ही विकारको प्राप्त हो जाता है । अतः ध्यानसिद्धिके लिए नगरोंका वास छोड़कर प्रायः पर्वतादि निर्जन स्थानों में रहनेकी आवश्यकता है ।
बुद्धिके त्रेधा संशोधकको ध्यानकी प्राप्ति
आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यास-रसेन च । त्रेधा विशोधयन् बुद्धिं ध्यानमाप्नोति पावनम् ||४२॥
'आगमके द्वारा, अनुमानके द्वारा और ध्यानाभ्यास रूप रसके द्वारा तीन प्रकारसे बुद्धिको विशुद्ध करता हुआ ध्याता पवित्र ध्यानको प्राप्त होता है ।'
व्याख्या - पिछले पद्य में ध्यानकी बाह्य सामग्रीका उल्लेख करके यहाँ अन्तरंग सामग्री के रूप में बुद्धिकी शुद्धिको पावन ध्यानका कारण बतलाया है । और उस बुद्धिशुद्धिके लिए तीन उपायोंका निर्देश किया है, जो कि आगम, अनुमान तथा ध्यानाभ्यास रसके रूपमें है । आगमजन्य श्रुतज्ञानके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका स्वरूप जानना 'आगमोपाय' है, आगमसे जाने हुए जीवादिके स्वरूपमें अनुमान प्रमाणसे दृढ़ता लाना 'अनुमानोपाय' है और ध्यानका अभ्यास करते हुए उसमें जो एक प्रकारका रुचिवृद्धि के रूपमें रस-आनन्द उत्पन्न होता है उसे 'ध्यानाभ्यास रस' कहते हैं । इन तीनों उपायोंके द्वारा बुद्धिका जो संशोधन होता है और उससे वह शुद्ध आत्मध्यान बनता है जिसमें विविक्त आत्माका साक्षात् दर्शन होता है | श्री पूज्यपादाचार्यने इन्हीं उपायोंसे बुद्धिका संशोधन करते हुए विविक्त आत्माका साक्षात् निरीक्षण किया था और तभी केवलज्ञानके. अभिलाषियोंके लिए उन्होंने समाधितन्त्र में विविक्त आत्माके कथनकी प्रतिज्ञाका यह वाक्य कहा है.
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[ अधिकार ७
श्रुतेन लिङ्गेन यथात्मशक्तिसमाहितान्तःकरणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्य-सुख-स्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ॥३॥
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इसमें 'समीक्ष्य' पदके द्वारा आत्मदर्शनका उल्लेख है, जो कि उक्त तीनों उपायोंका लक्ष्यभूत एवं ध्येय है । श्री पं० आशाधरजीने अध्यात्म- रहस्यमें इन चारोंका श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टिके रूपमें उल्लेख करते हुए, इन चारों शक्तियोंको क्रमसे सिद्ध करनेवाले योगीका परगामी लिखा है
शुद्धे श्रुति मति ध्याति दृष्टयः स्वात्मनि क्रमात् । यस्य सद्गुरुतः सिद्धाः स योगी योगपारगः ॥३॥
इन चारोंके सुन्दर वर्णनके लिए अध्यात्म-रहस्य को देखना चाहिए
१. णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिको चावि । लोगिगजणसंसग्गं ण चर्यादि जदि संजदो ण हवदि ॥ ६८ ॥ - प्रवचनसार ।
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