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पद्य २२-२४ ]
चारित्राधिकार
१६५
निःसन्देह संसारका मूल कारण 'मिथ्यादर्शन' है, मिथ्यादर्शनके सम्बन्धसे ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र होता है, तीनोंको भवपद्धति - संसार मार्ग के रूप में उल्लेखित किया जाता है, जो कि मुक्तिमार्गके विपरीत है। यह दृष्टिविकार ही वस्तु तत्त्वको उसके असली रूपमें देखने नहीं देता, इसीसे जो अभिनन्दनीय नहीं है उसका तो अभिनन्दन किया जाता है और जो अभिनन्दनीय है उससे द्वेष रखा जाता है । इस पद्य में जिन्हें धन्य, महात्मा और कल्याणफलभागी बतलाया हैं उनमें अविरत सम्यग्दृष्टि तकका समावेश है ।
स्वामी समन्तभद्रने सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डाल - पुत्रको भी 'देव' लिखा हैआराध्य बतलाया है; और श्री कुन्दकुन्दाचार्यने सम्यग्दर्शनसे भ्रष्टको भ्रष्ट ही निर्दिष्ट किया है, उसे निर्वाणकी -- सिद्धि - मुक्तिकी -- प्राप्ति नहीं होती ।
इस सब कथनसे यह साफ फलित होता है कि मुक्तिद्वेषी मिथ्यादृष्टि भवाभिनन्दी - मुनियोंकी अपेक्षा देशव्रती श्रावक और अविरत - सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तक धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं तथा कल्याणके भागी हैं। स्वामी समन्तभद्र ने ऐसे ही सम्यग्दर्शन-सम्पन्न सद्गृहस्थोंके विपय में लिखा है।
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गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो, नैव मोहवान् । अनगारो, गृही श्रेयान् निर्मोहो, मोहिनो मुनेः ॥
' मोह ( मिथ्यादर्शन' ) रहित गृहस्थ मोक्षमार्गी है । मोहसहित ( मिथ्या-दर्शन-युक्त ) मुनि मोक्षमार्गी नहीं है । ( और इसलिए ) मोही - मिध्यादृष्टिमुनि से निर्मोही - सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है ।'
इससे यह स्पष्ट होता है कि मुनिमात्रका दर्जा गृहस्थ से ऊँचा नहीं है, मुनियोंमें मोही और निर्मोही दो प्रकार के मुनि होते हैं। मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थका दर्जा ऊँचा हैयह उससे श्रेष्ठ है । इसमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि अविवेकी मुनिसे विवेकी गृहस्थ भी श्रेष्ठ है और इसलिए उसका दर्जा अविवेकी मुनिसे ऊँचा है ।
जो भवाभिनन्दीमुनि मुक्तिसे अन्तरंग में द्वेष रखते हैं वे जैन मुनि अथवा श्रमण कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । जैन मुनियोंका तो प्रधान लक्ष्य ही मुक्ति प्राप्त करना होता
। उसी लक्ष्य को लेकर जिनमुद्रा धारणकी सार्थकता मानी गयी है । यदि वह लक्ष्य नहीं तो जैन मुनिपना भी नहीं; जो मुनि उस लक्ष्यसे भ्रष्ट हैं उन्हें जैनमुनि नहीं कह सकते -- वे भेषी-ढोंगी मुनि अथवा श्रमणाभास हैं ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारके तृतीय चारित्राधिकार में ऐसे मुनियोंको 'लौकिकमुनि' तथा 'लौकिकजन' लिखा है। लौकिकमुनि-लक्षणात्मक उनकी वह गाथा इस प्रकार है: --
furiथ पञ्चदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहि ।
सो लोगिगोत्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि ॥ ६९ ॥
इस गाथा में बतलाया है कि 'जो निर्ग्रन्थरूपसे प्रब्रजित हुआ है - जिसने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनिकी दीक्षा धारण की है- वह यदि इस लोक-सम्बन्ध सांसारिक दुनियादारी के कार्यों में प्रवृत्त होता है तो तप-संयमसे युक्त होते हुए भी उसे 'लौकिक' कहा गया है।' वह पारमार्थिक मुनि न होकर एक प्रकारका सांसारिक दुनियादार प्राणी है। उसके लौकिक
१. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ - समन्तभद्र । २. दंसणभट्टा भट्टादंसणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं । - दंसणपाहुड | ३. मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते - रामसेन, तत्त्वानुशासन । ४ मुक्ति यियासता धायं जिनलिङ्गं पटीयसा । - योगसारप्रा० ८- १ |
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