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पद्य २४-२७]
चारित्राधिकार
१६७
मुक्तिमार्गको मलिनचित्त मलिन करते हैं संज्ञानादिरुपायो यो निर्वृतेर्वर्णितो जिनैः ।
मलिनीकरणे तस्य प्रवर्तन्ते मलीमसाः ॥२५॥ "जिनेन्द्र देवोंने मुक्तिका जो उपाय सम्यक्झानाविरूप वर्णन किया है उसको मलिनचित्तसाधु तथा गृहस्थ विद्वान्-मलिन करनेमें प्रवृत्त होते हैं।' ____ व्याख्या-मुक्तिका जो मार्ग सम्यग्ज्ञानादि-शुद्ध रत्नत्रयरूप जिनेन्द्रदेव-द्वारा वर्णित हुआ है उसे मलिन करने में वही प्रवृत्त होते हैं जो मलिनहृदय होते हैं। इसीसे लोकपंक्तिमें प्रवृत्त होनेवाले भवाभिनन्दी मुनिको 'मलिन अन्तरात्मा' (२०) लिखा है।
मक्तिमार्गके आराधन तथा विराधनका फल
आराधने यथा तस्य फलमुक्तमनुत्तरम् ।
मलिनीकरणे तस्य तथानों बहुव्यथः ॥२६॥ 'जिस प्रकार सम्यग्ज्ञानादिरूप मुक्तिमार्गकी आराधना-साधना करनेपर उसका फल अति उत्तम मोक्ष सुख कहा गया है उसी प्रकार उस मार्गके मलिन करनेपर उसका फल बहुत अनर्थ तथा दुःखरूप कहा गया है।' • व्याख्या-जिस मोक्षमार्गका पिछले पद्यमें उल्लेख है उसके आराधनका फल जहाँ परमोत्कृष्ट सुख की प्राप्तिरूप होता है वहाँ उसके विराधन अथवा मलिनीकरणका फल बहुत दुःख तथा अनर्थके रूपमें होता है, ऐसा यहाँ विधान किया गया है।
मार्गकी मलिनतासे होनेवाले अनर्थका सूचन तुङ्गारोहणतः पातो यथा तृप्तिर्विषान्नतः ।
यथानर्थोऽवबोधादि-मलिनीकरण तथा ॥२७॥ 'जिस प्रकार ऊंची सोढ़ीपरसे गिरना तथा विषमिश्रित भोजनसे तृप्तिका होना अनर्थकारी है, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानादिको मलिन-दूषित करना अनर्थकारी है।''
व्याख्या--मुक्तिमार्गको मलिन करनेपर जिस अनर्थकी बात पिछले पद्यमें कही गयी है उसका यहाँ दो उदाहरणोंके द्वारा कुछ आभास कराया गया है--एक है तुंगारोहणसे पतन, जितना कोई अधिक ऊँचा चढ़कर गिरेगा उतना ही वह अधिक दुःखका पात्र होगा। दूसरा उदाहरण है विष-मिश्रित अन्नके भोजनसे तृप्तिका-ऐसे विषाक्त भोजनसे जितनी किसीको अधिक तृप्ति होगी उतनी ही अधिक उसे वेदना उठानी पड़ेगी। यही दुःख तथा अनर्थकी स्थिति निर्मल सम्यग्ज्ञानादिको मलिन करनेपर होती है।
१. आ आराधना।
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