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योगसार- प्राभृत
[ अधिकार ७
समान ग्राह्य बतलाया है और उस त्याग तथा ग्रहण में यत्न करनेकी खास तौरसे प्रेरणा की है। बिना यत्न कोरे ज्ञानसे कुछ नहीं बनता ।
ध्यानका शत्रु कुतर्क त्याज्य
बोधरोधः शमापायः श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत् । कुतर्को मानसो व्याधिर्ध्यानशत्रुरनेकधा ॥ ५२ ॥ कुतर्केऽभिनिवेशोऽतो न युक्तो मुक्ति-काङ्क्षिणाम् । आत्मतत्वे पुनर्युक्तः सिद्धिसौध- प्रवेशके ॥५३॥
'कुतर्क ज्ञानको रोकनेवाला, शान्तिका नाशक, श्रद्धाको भंग करनेवाला और अभिमानको बढ़ानेवाला मानसिक रोग है, जो कि अनेक प्रकारसे ध्यानका शत्रु है । अतः मोक्षाभिलाषियोंको कुतर्क में अपने मनको लगाना युक्त नहीं, प्रत्युत इसको आत्मतत्त्वमें लगाना योग्य है, जो कि स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि-सदनमें प्रवेश करानेवाला है ।'
व्याख्या - यहाँ कुतर्कको ध्यानका शत्रु बतलाते हुए एक महाव्याधि के रूप में चित्रित किया गया है, जिसके फल हैं ज्ञानमें रुकावटका होना, शान्तिका विनाश, श्रद्धाका भंग, और अहंकारकी उत्पत्ति। साथ ही मुमुक्षुओंको यह प्रेरणा की गयी है कि वे कुतर्क में अपने मनको न लगाकर आत्मतत्त्व में संलग्न रहें, जो कि सिद्धिरूप मुक्तिके महलमें प्रवेश करानेवाला है।
यहाँ कुतर्कका अभिप्राय उसी व्यर्थके वाद प्रवादसे है जिसका उल्लेख इसी अधिकार के ३१ से ३३ तकके पद्योंमें किया जा चुका है और जिसे परंब्रह्मकी प्राप्ति में बाधक बतलाया है ।
मोक्षतत्त्वका सार
विविक्तमिति चेतनं परम-शुद्ध-बुद्धाशयाः विचिन्त्य सतताहता भवमपास्य दुःखास्पदम् । निरन्तमपुनर्भवं' सुखमतीन्द्रियं स्वात्मजं समेत्य कल्मषं निरुपमं सदैवासते || ५४ |||
इति श्रीमदमितगति - निःसंगयोगिराज -विरचिते योगसारप्राभृते मोक्षाधिकारः सप्तमः ।
'जो परम शुद्ध - बुद्ध आशयके धारक हैं वे चेतनात्माको विविक्त रूप - कर्मकलंकसे रहित -- चिन्तन कर -- ध्यानका विषय बनाकर -- उसके प्रति आदररूप परिणत हुए दुःखस्थान संसारका त्याग कर उस अपुनर्भवरूप मोक्षको प्राप्त करके सदा तिष्ठते हैं जो कि अपने आत्मासे उत्पन्न कल्मषरहित अतीन्द्रिय, अनुपम और अनन्त सुख स्वरूप है ।'
१. मुनिरंतरमपुनर्भवं । २. प्राप्य । ३. तिष्ठन्ति ।
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