Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 207
________________ पद्य १३-१७] चारित्राधिकार १६१ अशनादिमें प्रमादचारी साधुके निरन्तर हिंसा 'अशने 'शयने स्थाने गमे चक्रमणे ग्रहे। प्रमादचारिणो हिंसा साधोः सान्ततिकीरिता ॥१५॥ 'जो साधु खाने-पीनेमें, लेटने-सोनेमें, उठने-बैठनेमें, चलने-फिरनेमें, हस्त-पादादिकके पसारनेमें, किसी वस्तुको पकड़ने में, छोड़ने या उठाने-धरने में प्रमाद करता है-यत्नाचारसे प्रवृत्त नहीं होता-उसके निरन्तर हिंसा कही गयी है-भले ही वैसा करनेमें कोई जीव मरे या न मरे।' व्याख्या-चारित्रमें तथा २८ मूल गुणों में हिंसाकी पूर्णतः निवृत्तिरूप जिस अहिंसा महाव्रतकी प्रधानता है उसको दृष्टि में रखते हुए यहाँ उस साधुको निरन्तर हिंसाका भागी बतलाया है जो भोजन-शयनादि रूप उक्त क्रियाओंमें प्रमादसे वर्तता है--चाहे उन क्रियाओंके करने में कोई जीव मरे या न मरे। इसीसे श्री कुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारमें कहा है 'मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा' कोई जीव मरे या न मरे, जो यत्नाचारसे प्रवृत्त नहीं होता ऐसे प्रमादीके निश्चित रूपसे बराबर हिंसा होती रहती है। अतः हिंसामें प्रधान कारण प्रमादचर्या है--जीवघात नहीं। जीवघातके न होनेपर भी प्रमादीको हिंसाका दोष लगता है। यत्नाचारी की क्रियाएँ गुणकारी, प्रमादीको दोषकारी गुणायेदं सयत्नस्य दोषायेदं प्रमादिनः । सुखाय ज्वरहीनस्य दुःखाय 'ज्वरिणो घृतम् ॥१६॥ 'जो यत्नाचारसे प्रवृत्त होता है उसके यह सब आचरण गुणकारी हैं और जो प्रमादी है उसके यह सब आचरण दुःखकारी हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार कि ज्वररहितके घृतका सेवन सुखकारी है और ज्वरवालेको दुःखका कारण है।' व्याख्या--पिछले पद्य में अशन-शयनादिके रूपमें जिस आचरणका उल्लेख है उस सयत्नाचारीके लिए यहाँ गुणकारी और प्रमादचारीके लिए दोषकारी बतलाया है साथमें घृतका उदाहरण देकर उसको स्पष्ट किया है, जो कि ज्वरहीनके लिए सुखकारी और ज्वरवानके लिए दुःखकारी होता है । इस तरह एक ही वस्तु आश्रय भेदसे भिन्न फलको फलती है । पर पोडक साधुमें ज्ञानके होते हुए भी चारित्र मलिन ज्ञानवत्यपि चारित्रं मलिनं पर-पोडके। कज्जलं मलिनं दीपे स प्रकाशेऽपि तापके ॥१७॥ 'परको पीड्य पहुँचानेवाले (साधु ) में ( सम्यक ) ज्ञानके होनेपर भी चारित्र मलिन होता है। (ठीक है ) तापकारी दीपकमें प्रकाशके होते हुए भी काजल मलिन ( काला) होता है-प्रकाशके समान उज्ज्वल नहीं होता।' १. अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु । समणस्स सम्बकाले हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा ॥३-१६।-प्रवचनसार । २. च्या आशने । ३. आ गहे। ४. मु ज्वरिणे । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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