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पद्य ३७-४१] मोक्षाधिकार
१४९ समीचीन उपायको महान् आदरके साथ करना चाहिए। यह आचार्य महोदयका अपना कल्याण चाहनेवालों के लिए हितोपदेश है।
अध्यात्म-ध्यानसे भिन्न सदुपाय नहीं नाध्यात्म-चिन्तनादन्यः सदुपायस्तु विद्यते ।
दुरापः स परं जीवेमहिव्यालकदथितैः॥४०॥ 'अध्यात्मचिन्तनसे भिन्न दूसरा कोई भी समीचीन उपाय ( परंब्रह्मकी प्राप्तिका) नहीं है, जो जीव मोह-व्यालसे कथित हैं-मोहसर्पसे डसे हुए अथवा मोहरूपी हस्तीसे पीडित हैं-उनके द्वारा वह उपाय दुर्लभ है।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस सच्चे समीचीन उपायके प्रति महान आदरकी बात कही गयी है वह अध्यात्मचिन्तनसे-शुद्धात्माके ध्यानसे-भिन्न दूसरा और कोई नहीं है, यह इस पद्यमें बतलाया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि इस समीचीन उपायकी प्राप्ति उन जीवोंको नहीं होती जो मोहसे मूर्छित अथवा पीड़ित हैं।
उक्त ध्यानकी बाह्य सामग्री उत्साहो निश्चयो धैर्य संतोषस्तत्वदर्शनम् ।
जनपदात्ययः षोढा सामग्रीयं बहिभवा ॥४१॥ __(अध्यात्मचिन्तनरूप ध्यानके लिए ) उत्साह, निश्चय ( स्थिर विचार ), धैर्य, सन्तोष, तत्त्वदर्शन और जनपदत्याग यह छह प्रकारको बाह्य सामग्री है।'
__व्याख्या-जिस ध्यानका पिछले पद्यमें उल्लेख है उसकी सिद्धिके लिए यहाँ बाह्य सामग्रीके रूपमें छह बातें बतलायी गयी हैं, जिनमें उत्साहको प्रथम स्थान दिया गया है । यदि उत्साह नहीं तो किसी भी कार्य-सिद्धिके लिए प्रवृत्ति ही नहीं बनती। यदि ध्येयका निश्चय ही नहीं तो सब कुछ व्यर्थ है। यदि धैर्य नहीं तो साधनामें विघ्न-कष्टादिके उपस्थित होनेपर स्खलित हो जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, इसीसे नीतिकारोंने 'धैर्य सर्वार्थ-साधनं'जैसे वाक्यों-द्वारा धैर्यको सर्व प्रयोजनोंका साधक बतलाया है। विषयोंमें लालसाके अभावका नाम सन्तोष है, यह सन्तोष भी साधनाकी प्रगतिमें सहायक होता है, यदि सदा असन्तोष बना रहता है तो वह एक बड़ी व्याधिका रूप ले लेता है, इसीसे 'असंतोषो महाव्याधिःजैसे वाक्योंके द्वारा असन्तोषको महाव्याधि माना गया है। जीवादि तत्त्वोंका यदि भले प्रकार दर्शन-स्वरूपानुभवन न हो तो फिर उत्साह, निश्चय, धैर्य तथा सन्तोषसे भी क्या बन सकता है और ध्यानमें प्रवृत्ति भी कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती। अतः 'तत्त्वदर्शन' का होना परमावश्यक है, इसीसे इस योग ग्रन्थमें तत्त्वोंका आवश्यक निरूपण किया गया है। अन्तकी छठी सामग्री है 'जनपदत्याग', जबतक जनपद और जनसम्पर्कका त्याग नहीं किया जाता तबतक साधनाकी पूर्णता नहीं बनती। जनसम्पर्कसे वाक्प्रवृत्ति, वाक्प्रवृत्तिसे मनका चंचल होना और मनकी चंचलतासे चित्तमें अनेक प्रकारके विकल्प तथा क्षोभ होते हैं, जो सब ध्यानमें बाधक हैं। इसीसे श्री पूज्यपादाचार्यने समाधितन्त्रमें निम्न वाक्य-द्वारा योगीको जनसम्पर्क के त्यागनेकी खास प्रेरणा की है
१. जनसंकुलरहितः।
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