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पद्य ३०-३६ ]
मोक्षाधिकार
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रूप अन्तिम लक्ष्यको प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार जिस प्रकार कि चलनेमें विलम्ब करनेवाले प्रमादी जन इधर-उधरके झगड़े- टंटोमें फँसकर समयपर रास्ता तय करके मंजिलको पहुँच नहीं पाते।
परंब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय
विभक्तचेतन-ध्यानमत्रोपार्यं विदुर्जिनाः । गतावस्तप्रमादस्य सन्मार्ग - गमनं यथा ||३४||
'जिनेन्द्रोंने- अर्हन्तोंने - परंब्रह्मको प्राप्ति अथवा तत्त्वान्तगतिमें विभक्त चेतनकेकर्मों से पृथग्भूत विविक्त एवं शुद्ध आत्माके -- ध्यानको उपाय बतलाया है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि प्रमादरहितका सन्मार्गगमन - ठीक मार्गपर चलना - अभीष्ट स्थानकी प्राप्तिमें उपाय है।'
व्याख्या - जिस फलका ३०वें पद्यमें उल्लेख है, उसकी प्राप्तिके उपाय रूपमें यहाँ उस ध्यानका निर्देश किया गया है जो कर्मोंसे पृथक हुए अन्य सम्पर्कसे रहित विविक्त, शुद्ध एवं खालिस आत्माका ध्यान है । यह ध्यान ही परंब्रह्मकी प्राप्तिमें सहायक होता है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि अप्रमादीका ठीक मार्गपर चलना अभीष्ट स्थानकी प्राप्तिमें सहायक होता है।
आत्मा ध्यान-विधिसे कर्मोंका उन्मूलक कैसे ?
योज्यमानो यथा मन्त्रो विषं घोरं निषूदते । तथात्मापि विधानेन कर्मानेकभवार्जितम् ||३५||
'जिस प्रकार ( ठीक ) मन्त्रकी योजना किये जानेपर घोर विष दूर किया जाता है उसी प्रकार आत्मा भी अनेक भवोंके उपार्जित कर्मसमूहसे विविक्तात्म-ध्यानके द्वारा पृथक किया जाता है ।'
व्याख्या - पिछले पद्य में जिस शुद्धात्मा के ध्यानकी बात कही गयी है उसीको यहाँ एक दूसरे उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है, वह है विषहर मन्त्रका उदाहरण । ठीक योजना किया हुआ ऐसा मन्त्र जिस प्रकार घोर विषको सारे शरीर से खींचकर दूर कर देता है उसी प्रकार आत्मा भी विविक्त आत्माकी ध्यान विधिसे अनेक भवोंके संचित कर्ममलको दूर कर देता है।
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विविक्तात्माका ध्यान अचिन्त्यादि फलका दाता
चिन्त्यं चिन्तामणिर्दते कल्पितं कल्पपादपः । अविचिन्त्यमसंकल्प्यं विविक्तात्मानुचिन्तितः ॥ ३६ ॥
'चिन्तामणि चिन्तित पदार्थको, कल्पवृक्ष कल्पनामें स्थित पदार्थको देता है; परन्तु ध्यान किया गया विविक्त आत्मा अचिन्तित और अकल्पित फलको प्रदान करता है।'
१. मात्रोपायं ।
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