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योगसार-प्राभृत
[अधिकार ७ व्यवस्थिति नहीं हो पाती; जैसे स्फटिककी उपाधिके संगसे। दूसरे पद्यमें 'एकान्त-क्षीणसंक्लेशः' विशेषण भी अपना खास महत्त्व रखता है और उसके द्वारा उन
सके द्वारा उन सारे ही दुःखोंके सर्वथा अभावको सूचित किया गया है जिनकी स्वामी समन्तभद्रने निर्वाण सुखका वर्णन करते हुए 'जन्मजरामग्रमरणः शोकैदुःखैर्भयैश्च परिमुक्त' इस वाक्यके द्वारा सूचना की है।
ध्यानका मुख्य फल और उसमें यत्नको प्रेरणा ध्यानस्येदं फलं मुख्यमैकान्तिकमनुत्तरम् । आत्मगम्यं परं ब्रह्म ब्रह्मविद्भिरुदाहृतम् ॥३०॥ अतोऽत्रैव महान् यत्नस्तत्त्वतः प्रतिपत्तये ।
प्रेक्षावता सदा कार्यो मुक्त्वा वादादिवासनाम् ॥३१॥ ___ 'जो ब्रह्मवेता हैं उन्होंने परब्रह्मको आत्मगम्य करना यह ध्यानका मुख्य, अव्यभिचारी और अद्वितीय फल बतलाया है। अतः समीक्ष्यकारीके द्वारा वस्तुतः उसकी प्राप्ति के लिए वादादिको वासनाको छोड़कर सदा इस ध्यानमें ही महान् यत्न किया जाना चाहिए।'
व्याख्या-इन दोनों पद्योंमें से प्रथम पद्यमें ब्रह्मवेत्ताओं-द्वारा निर्दिष्ट ध्यानके उस फलका निर्देश किया गया है जो प्रधान है, कभी अन्यथा नहीं होता तथा जिसकी जोड़का दूसरा कोई फल नहीं है और वह है परब्रह्मको आत्मगम्य करना-अपने आत्मामें शुद्धात्माका साक्षात् दर्शन करना। दूसरे पद्यमें उस परंब्रह्मको आत्म-गम्य करनेके लिए संपूर्ण वादप्रतिवादके संस्कारोंको छोड़कर महान प्रयत्न करनेकी परीक्षकोंको प्रेरणा की गयी है।
ध्यानमर्मज्ञ योगियोंका हितरूप वचन ऊचिरे ध्यान-मार्गज्ञा ध्यानोद्धृत-रजश्चयाः। भावि-योगि-हितायेदं ध्वान्त-दीपसमं वचः ॥३२॥ वादानां प्रतिवादानां भाषितारो विनिश्चितम् ।
नैव गच्छन्ति तत्वान्तं गतेरिव विलम्बिनः ॥३३॥ 'जिन्होंने ध्यानके द्वारा कर्मरजके समूहको आत्मासे दूर किया उन ध्यान मार्गके मर्मज्ञ योगियोंने भावी योगियोंके हितार्थ यह अन्धकारध्वंसक दीपकके समान वचन कहा है कि-जो वादों-प्रतिवादोंके चक्करमें पड़े रहते हैं वे निश्चित रूपसे तत्त्वके अन्तको-परंब्रह्म पदकी प्राप्ति रूप अन्तिम लक्ष्य ( मोक्ष ) को-प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार जिस प्रकार कि गति-विलम्बी मनुष्य मार्गको तय नहीं कर पाते।'
___ व्याख्या-पिछले पद्यमें जिन वाद-प्रतिवादोंके संस्कारोंको छोड़ने की बात कहीं गयी है उसीके सम्बन्ध में यहाँ ध्यानके मर्मज्ञ और ध्यानके द्वारा आत्मासे कर्म-मलके समूहको दूर करनेवाले योगियोंके एक वचनको उद्धृत किया है जिसे उन पूर्व योगियोंने भावी योगियों के हितके लिए कहा है और जिसे अन्धकारको दूर करनेवाले दीपस्तम्भके समान बतलाया है। वह वचन यह है कि 'वादों-प्रतिवादोंके चक्करमें फंसे रहनेवाले योगी परंब्रह्मकी प्राप्ति
१. देखो, समीचीन धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड )।
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