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पद्य ५९-६२ ]
संवराधिकार
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'अतः जो मोक्षका अभिलाषी और संवरका अर्थी है उसके द्वारा समस्त अचेतन पदार्थ समूह व्यजनीय है और अपने आत्मामें स्थित चेतन सदा सेवनीय है ।'
व्याख्या - शरीर और वेषकी पूर्वोक्त स्थिति में शरीर और वेप ही नहीं, किन्तु सभी अचेतन वस्तु समूह मोक्ष के इच्छुक और इसलिए संवरके अर्थीको त्यागने योग्य है -- किसी में भी उसे आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। प्रत्युत इसके वह चेतन सदा सेवनीय एवं उपासनीय है जो अपने आत्मामें स्थित है ।
कौन योगी शीघ्र कर्मोंका संवर करता है।
आत्मतत्वमपहस्तित - रागं
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ज्ञान-दर्शन-चरित्रमयं यः ।
मुक्तिमार्गमवगच्छति योगी
संवृणोति दुरितानि स सद्यः ॥ ६२ ॥
इति श्रीमदमितगति - निःसंग योगिराज - विरचिते योगसारप्राभूतं संवराधिकारः ॥ ५ ॥
'जो योगी राग-रहित आत्मतत्त्वको और ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप मोक्षमार्गको जानता-पहचानता है वह शीघ्र कर्मोंका संवर करता है ।'
व्याख्या -- यह इस पाँचवें संवराधिकारका उपसंहार-पद्य है। इसमें बतलाया है कि जो योगी राग-द्वेष-रहित शुद्ध आत्मतत्त्वको और निर्मल ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्गको प्राप्त होता है वह शीघ्र ही कर्म के आस्रव को - शुभ-अशुभ सभीप्रकार के कर्मोके आत्मप्रवेशको रोकता है । और इसलिए संवरावस्था में कोई भी नया कर्म आत्माक साथ बँधने नहीं पाता ।
इस प्रकार श्री अमितगति-निःसंगयोगिराज - विरचित योगसार प्राभृत में संवर अधिकार नामका पाँचवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥ ५ ॥
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