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योगसार-प्राभृत
[अधिकार ६ व्याख्या-अन्तरंग सेनाके अंगरक्षक जवानोंकी सेवाको प्राप्त एवं सुरक्षित हुआ राजा शत्रुसे बाँधा नहीं जाता; परन्तु जब वे अंगरक्षक उसकी सेवामें नहीं होते और राजा अकेला पड़ जाता है तब वह शत्रुसे बाँध लिया जाता है। यहाँ इस लोक-स्थितिके विपरीत यह दिखलाया है कि जो जीव अन्तरंगमें स्थित पाँच पापरूप अंगरक्षकोंसे सेवित है वह तो कर्म शत्रुसे बँध जाता है परन्तु जिसके उक्त पाँच सेवक बहिर्भूत हो जाते हैं-उसकी सेवामें नहीं रहते-और वह अकेला पड़ जाता है उसे कर्मशत्रु बाँधनेमें असमर्थ हैं। लोक-व्यवहार एवं प्रत्यक्षके विरुद्ध होनेसे इसपर भारी आश्चर्य व्यक्त किया गया है। और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि जिन पापोंको तुम अपने संगी-साथी एवं रक्षक समझते हो वे सब वस्तुतः तुम्हारे बन्धके कारण हैं, उनका साथ छोड़नेपर ही तुम बन्धको प्राप्त नहीं हो सकोगे। अज्ञानी प्राणी समझता है कि मैं हिंसा करके, झूठ बोलकर, चोरी करके, विषय सेवन करके और परिग्रहको बढ़ाकर आत्मसेवा करता हूँ-अपनी रक्षा करता हूँ, यह सब भूल है; इन पाँचों पापोंसे, जो कि वास्तव में सेवक-संरक्षक न होकर अन्तरंग शत्रु हैं, कर्मोंका बन्धन हद होता है अतः जो कर्मोके बन्धनसे बँधना नहीं चाहते उन्हें अपने हृदयसे इन पाँचों पापोंको निकाल बाहर कर देना चाहिए, तभी अबन्धता और अपनी रक्षा बन सकेगी।
. ज्ञानकी आराधना ज्ञानको, अज्ञानको अज्ञानको देती है
'ज्ञानस्य ज्ञानमज्ञानमज्ञानस्य प्रयच्छति ।
आराधना कृता यस्माद् विद्यमानं प्रदीयते ॥३४॥ 'ज्ञानकी आराधना ज्ञानको, अज्ञानको आराधना अज्ञानको प्रदान करती है; क्योंकि जिसके पास जो वस्तु विद्यमान है वही दी जाती है।'
व्याख्या-जिसके पास जो वस्तु विद्यमान है उसीको वह दे सकता है, यह एक सिद्धान्तकी बात है। ज्ञानके पास ज्ञानको छोड़कर और अज्ञानके पास अज्ञानको छोड़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं अतः ज्ञानकी आराधना करने पर ज्ञान और अज्ञानकी आराधना करने पर अज्ञान प्राप्त होता है।
ज्ञानके ज्ञात होनेपर ज्ञानी जाना जाता है न ज्ञान-ज्ञानिनोर्मेदो विद्यते सर्वथा यतः।
ज्ञाने ज्ञाते ततो ज्ञानी ज्ञातो भवति तत्वतः ॥३५॥ 'चकि ज्ञान और ज्ञानी में सर्वथा भेद विद्यमान नहीं है इसलिए ज्ञानके ज्ञात होनेपर वस्तुतः ज्ञानी ज्ञात होता है-जाना जाता है।'
व्याख्या-ज्ञान और ज्ञानी एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न नहीं हैं । ज्ञान गुण है, ज्ञानी गुणी है, गुण-गुणीमें सर्वथा भेद नहीं होता; दोनोंका तादात्म्य-सम्बन्ध होता है और इसलिए वास्तवमें ज्ञानके मालूम पड़ने पर ज्ञानी (आत्मा) का होना जाना जाता है। यहाँ सर्वथा भेद न होनेकी जो बात कही गयी है वह इस बातको सूचित करती है कि दोनोंमें कथंचित्
१. अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः । ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः ॥२३॥
-इष्टोपदेशे पूज्यपादः ।
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