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पद्य ४५-५० ]
निर्जराधिकार
१३३
'निर्मलताको प्राप्त हुआ ज्ञानी अज्ञानको प्राप्त नहीं होता ( ठीक है) विशोधित स्वर्ण मलिनताको कैसे प्राप्त होता है ? नहीं होता ।'
व्याख्या -- अनादि सम्बन्धको प्राप्त किट्ट कालिमासे विशोधित हुआ सुवर्ण जिस प्रकार पुनः उस मलिनताको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार अनादि कर्ममलका सम्बन्ध पूर्णतः छूटने पर निर्मलताको प्राप्त हुआ ज्ञानी पुनः अज्ञानको प्राप्त नहीं होता । यहाँ जिस निर्मल ज्ञानका उल्लेख है वह मोहक्षय के अनन्तर ज्ञानावरण और अन्तराय नामके घातिया कर्मोंके क्षयसे समुत्पन्न केवलज्ञानका धनी ज्ञानी है ।
विद्वान् के अध्ययनादि कर्मोकी दिशाका निर्देश अध्येतव्यं स्तिमितमनसा ध्येयमाराधनीयं पृच्छयं* श्रव्यं भवति विदुषाभ्यस्यमावर्जनीयम् । वेद्यं गद्यं किमपि तदिह प्रार्थनीयं विनेयं दृश्यं स्पृश्यं प्रभवति यतः सर्वदात्मस्थिरत्वम् ||४६॥
'इस लोक में विद्वान्के द्वारा वह कोई भी पदार्थ स्थिर चित्त से अध्ययनके योग्य, ध्यानके योग्य, आराधनके योग्य, पूछने के योग्य, सुननेके योग्य, अभ्यासके योग्य, संग्रहणके योग्य, जानने के योग्य, कहनेके योग्य, प्रार्थनाके योग्य, प्राप्त करनेके योग्य, देखनेके योग्य और स्पर्शके योग्य होता है, जिससे - जिसके अध्ययनादिसे- आत्मस्वरूपको स्थिरता सदा वृद्धिको प्रात होती है ।'
व्याख्या - इस पद्य में एक विद्वान के लिए अध्ययनादि विषयक जीवनके लक्ष्यको बड़ी सुन्दरताके साथ व्यापक रूप में व्यक्त किया है । वह लक्ष्य है अपने आत्मस्वरूप में स्थिरताकी उत्तरोत्तर वृद्धि । इसी लक्ष्यको लेकर किसी भी पदार्थका अध्ययन, ध्यान, आराधन, पृच्छन, श्रवण, अभ्यसन, ग्रहण, वेदन, कथन, याचन, दर्शन तथा स्पर्शन होना चाहिए । यदि उक्त लक्ष्य नहीं तो अध्ययनादि प्रायः व्यर्थ है । उससे कोई खास लाभ नहीं - उलटा शक्तिका दुरुपयोग होता है ।
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योगीका संक्षिप्त कार्यक्रम और उसका फल इत्थं योगी व्यपगतपर द्रव्य -संगप्रसङ्गो
कामं चपल - करण-ग्राममन्तर्मुखत्वम् । ध्यात्वात्मानं विशदचरण- ज्ञान दृष्टिस्वभावं, नित्यज्योतिः पदमनुपमं याति निर्जीर्णकर्मा || ५०||
इति श्रीमदमितगति - निःसंगयोगिराज - विरचितं योगसारप्राभृते निर्जराधिकारः ॥ ६ ॥
१. आ पृश्यं । २. आ, व्या नीत्वा । ३. मु नित्यं ।
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