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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ७
जो ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मके रूपमें दो प्रकारका है। इस तरह जिन चार मूल प्रकृतियोंका यहाँ उल्लेख है उन्हें घाति कर्म प्रकृतियाँ कहा जाता है। उनके पूर्णतः क्षय होने पर आत्मामें केवलज्ञानका उदय उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कि रात्रिका घोर अन्धकार नष्ट होने पर आकाश में देदीप्यमान सूर्यबिम्बका उदय होता है ।
दोषोंसे मलिन आत्मामें केवलज्ञान उदित नहीं होता
न दोषमलिने तत्र प्रादुर्भवति केवलम् । आदर्श न मलग्रस्ते किंचिद् रूपं प्रकाशते || ३ ||
'आत्माके दोषोंसे मलिन होनेके कारण उसमें केवलज्ञान प्रादुर्भूत नहीं होता ( जैसे ) मलसे अभिभूत दर्पण में रूप कुछ प्रकाशित नहीं होता ।'
व्याख्या - यहाँ पिछली ( केवलज्ञान के उदयकी ) बातको और स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो आत्मा दोषोंसे - राग-द्वेष-काम-क्रोधादि मलोंसे - मलिन है उसमें केवलज्ञान उसी प्रकारसे उदयको प्राप्त नहीं होता जिस प्रकार धूल धूसरित दर्पण में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । रूपके ठीक दिखलाई देनेके वास्ते जिस प्रकार दर्पणका निर्मल होना परमावश्यक है उसी प्रकार केवलज्ञानके उदयके लिए उस चतुर्विध धाति कर्ममलका नष्ट होना परमावश्यक है । जिसका पिछले पद्य में उल्लेख है ।
मोहादि दोषों का नाश शुद्धात्मध्यानके बिना नहीं होता
न मोह- प्रभृति-च्छेदः शुद्धात्मध्यानतो विना । कुलिन विना न भूधरो भिद्यते न हि || ४ ||
'शुद्ध आत्माके ध्यानके बिना मोहादि कर्मोंका छेद उसी प्रकार नहीं बनता जिस प्रकार कि वज्रके बिना पर्वत नहीं भेदा जाता ।'
व्याख्या - जिन मोहादि चार घातिया कर्मोंके पूर्णतः क्षय होनेपर केवलज्ञानका उदय अवलम्बित है उनका वह क्षय शुद्ध आत्माके ध्यानके बिना नहीं बनता, उसी प्रकार जिस प्रकार कि वज्र के बिना पर्वतका भेदन नहीं हो सकता । इस तरह यहाँ शुद्ध आत्माके ध्यानको कर्मरूपी पर्वतोंके विदारणार्थ उपाय रूपमें निर्दिष्ट किया है, जो किसीके अधीन न होकर स्वाधीन है | मोहादिकर्म समूहको भूधरकी उपमा उसके कठिनतासे विदीर्ण होनेका सूचक है ।
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ध्यान - वज्र से कर्मग्रन्थिका छेद अतीवानन्दोत्पादक
विभिन्ने सति दुर्भेदकर्म-ग्रन्थि - महीधरे । तीच्णेन ध्यानवज्रेण भूरि-संक्लेश - कारिणि ॥ ५॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्रिकोऽस्य महात्मनः । औषधेनेव सव्याधेर्व्याधेरभिभवे कृते || ६ ||
१. आ संश्लेशकारणि । २. आ व्याधिरभिभवे ।
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