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पद्य १३-२७] निर्जराधिकार
१२५ अपने उस निर्मल तीर्थको छोड़कर अन्य तीर्थकी उपासना करते हैं वे सरोवरको छोड़कर जोहड़में स्नान करते हैं; क्योंकि दूसरे एक तो आत्मतीर्थसे परतीर्थको प्रधानता प्राप्त होती है, जो कि अतत्त्वश्रद्वारूप मिथ्यात्वका द्योतक एक प्रकारका विकार है; दूसरे परमें रागके कारण आत्मा कर्ममलसे लिप्त होता है । अतः स्वतीर्थको छोड़कर परतीर्थका सेवन जोहडमें स्नानके समान है, जिससे निर्मलताके स्थानपर कुछ मलका ही ग्रहण होता है। ऐसी आचार्य महोदयने कल्पना की है।
स्वात्मज्ञानेच्छुकको परीषहोंका सहना आवश्यक स्वात्मानमिच्छभितुिं सहनीयाः परीषहाः।
नश्यत्यसहमानस्य स्वात्म-ज्ञान परीषहात् ॥२६॥ 'अपने आत्माको जाननेके इच्छुकोंको परीषह सहन करनी चाहिए, जो परीषहोंको सहन नहीं करता उसका स्वात्मनान परीषहोंके उपस्थित होने पर स्थिर नहीं रहता-नाशको प्राप्त हो जाता है।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस निर्मल आत्मतीर्थकी बात कही गयी है उसे जो जाननेपहचाननेके इच्छुक हैं उनके लिए यहाँ परीषहोंका सहन करना आवश्यक बतलाया है, जिनकी संख्या आगममें बाईस बतलायी गयी है और उनके नाम हैं-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर, नग्नता, अरत्ति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ,
णस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन । इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओं आदि ग्रन्थोंमें विस्तारके साथ दिया है। इन परीषहोंको जो सहन नहीं करता है इसका स्वात्मज्ञान नष्ट हो जाता है-अर्थात् प्रथम तो उत्पन्न नहीं होता और यदि उत्पन्न होता भी है तो स्थिर नहीं रहता। इसीसे श्री पूज्यपादाचार्य ने लिखा है :
अदुःखभाबितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसंनिधौ।
तस्माद्यथा बलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥ 'जो आत्मज्ञान अदुःख-भावित है-दुःखकी भावना-संस्कृतिको साथमें लिये हुए नहीं है-बह परीषहजन्य दुःखके उपस्थित होनेपर क्षीण हो जाता है, इसलिए जितनी भी अपने में शक्ति हो उसके अनुसार मुनिको परीषजन्य दुःखोंसे अपनेको भावित-संस्कारित करना चाहिए।
रोग,
सुख-दुःखमें अनुबन्धका फल अनुबन्धः सुखे दुःखे न कार्यो निर्जरार्थिभिः ।
आतं तदनुबन्धेन जायते भूरिकमदम् ॥२७॥ 'जो निर्जराके अर्थी—अभिलाषी हैं उनके द्वारा सुखमें तथा दुःखमें अनुबन्ध-अनुवर्तनरूप सम्बन्ध- नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि-उस अनुबन्धसे आर्तध्यान उत्पन्न होता है, जो बहुत कोका दाता है।'
___ व्याल्या जो कर्मोकी निर्जराके इच्छुक हैं उन्हें आचार्य महोदयने यहाँ एक बड़ा ही सुन्दर एवं हितकारी उपदेश दिया है और यह कि उन्हें परीषहोंके उपस्थित होनेपर जो दुःख
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