Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 170
________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ६ 'परमात्मदेव के (स्व) देह में स्थित होनेपर भी जो देवको अन्यत्र ढूँढ़ता है, मैं समझता हूँ, वह मूढ बुद्धि घरमें भोजनके तैयार होनेपर भी भिक्षाके लिए भ्रमण करता है ।' १२४ व्याख्या - यहाँ अपने देह में स्थित परमात्माकी उपासनाको प्रधानता देते हुए लिखा है कि जो देहस्थ परमात्माको छोड़कर अन्यत्र उसकी उपासना करता है वह उस मूढबुद्धिके समान है जो घरमें भोजनके तैयार होते हुए भी, उसके न होनेकी आशंका करके, भिक्षाके लिए बाह्य भ्रमण करता है । कौन कर्म-रज्जुओंसे बँधता और कौन छूटता है। कषायोदयतो जीवो बध्यते कर्मरज्जुभिः । शान्त क्षीणकषायस्य त्रुटयन्ति रभसेन ताः || २३ ॥ 'कषायके उदयसे यह जोव कर्म रज्जु रूप बन्धनोंसे बँधता है, जिसके कषाय शान्त अथवा क्षीण हो जाते हैं उसके वे रज्जु-बन्धन शीघ्र टूट जाते हैं ।' व्याख्या - जिन कषायोंके उदयसे यह जीव कर्मबन्धनोंसे बँधता है वे सब कर्मों के बन्धन कपायोंके शान्त तथा क्षीण होने पर शीघ्र ही स्वयं टूट जाते हैं। और इस तरह उनकी निर्जरा हो जाती है । प्रमादी सर्वत्र पापोंसे बँधता और अप्रमादी छूटता है सर्वत्र प्राप्यते पापैः प्रमाद - निलयीकृतः । प्रमाद-दोष निर्मुक्तः सर्वत्रापि हि मुच्यते ||२४|| 'जिसने प्रमादका आश्रय लिया है - जो सदा प्रमादसे घिरा प्रमादी बना हुआ है-वह सर्वत्र पापोंसे - पाप कर्मोंसे --ग्रहीत होता अथवा बँधता रहता है। और जो प्रमादके दोषसे रहित निष्प्रमादी है वह सब ठौर पापोंसे मुक्त होता रहता है--नये पाप कर्मोंके बँधनेकी तो बात ही दूर है ।' व्याख्या -- यहाँ प्रमाद के दोषसे निर्मुक्तको निर्जराका अधिकारी बतलाते हुए लिखा है कि 'जो प्रमादका आश्रय लिये रहता है वह जहाँ कहीं भी हो पापोंसे बँधता है और जो प्रमादसे निर्मुक्त है वह कहीं भी हो पापोंसे छुटकारा पाता है-उसके साथ नये कर्मबन्धको प्राप्त नहीं होते और पुराने बँधे कर्मोंकी निर्जरा हो जाती है। Jain Education International स्वनिर्मलतीर्थको छोड़कर अन्यको भजनेवालोंको स्थिति स्वतीर्थममलं हित्वा शुद्धयेऽन्यद् भजन्ति ये । ते मन्ये मलिनाः स्नान्ति सरः संत्यज्य पल्वले ||२५|| 'अपने निर्मल आत्मतीर्थंको छोड़कर जो शुद्धिके लिए अन्य तीर्थको भजते हैं, मैं समझता हूँ, वे मलिन प्राणी सरोवरको छोड़कर जोहड़में स्नान करते है ।' व्याख्या - २३वें पद्य में परमात्मा के देहस्थ होने की बात कही गयी है और उस परमात्माको छोड़कर अन्यत्र देव की खोजपर कुछ आपत्ति की गयी है, यहाँ उसी देहस्थ परमात्माको अपना निर्मल तीर्थ बतलाया है और यह सूचित किया है कि जो शुद्धिके इच्छुक मलिन प्राणी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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