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पद्य १२-१६ ] निर्जराधिकार
१२१ व्याख्या-जिस पवित्र संयमका ११वें पद्य में उल्लेख है और जिसको वहाँ 'जिनागमनिवेदितं' विशेषण दिया है उसीको यहाँ 'चारित्र' शब्दसे उल्लेखित करते हुए उसके उस विशेपणका स्पष्टीकरण किया गया है, जिनागमको आईतवाक्य ( अर्हत्प्रवचन ) बतलाया है
और यह घोषणा की है कि जो योगी अर्हन्तके प्रवचनकी श्रद्धा नहीं करता है--श्रद्धापूर्वक जिनागम-कथित संयमका पालन नहीं करता है-वह वास्तवमें पवित्र संयमका पालन करता हाआ भी शद्धिको प्राप्त नहीं होता। इससे अहत्प्रतिपादित संयमके अनशनमें
अहत्प्रतिपादित संयमके अनुष्ठानमें श्रद्धाकी खास जरूरत है-बिना श्रद्वाका चारित्र स्वयं शुद्ध होते हुए भी शुद्धि-विधानमें असमर्थ है, श्रद्धा उस में शक्तिका संचार करती है।
जिनागमको न जानता हुआ संयमी अन्धेके समान विचित्रे चरणाचारे वर्तमानोऽपि संयतः ।
जिनागममजानानः सदृशो गतचनुषः ॥१५॥ 'नाना प्रकारके चारित्राचारमें प्रवर्तमान हुआ भी जो संपमी जिनागमको नहीं जानता वह चक्षुहोनके समान है-उसका वह आचरण अन्धाचरणके तुल्य है।'
व्याख्या-यहाँ उस योगीके चारित्रको अन्धाचरणके समान बतलाया है जो जिनागमको नहीं जानता। ऐसे ही आगम-शास्त्रको लक्ष्य करके किसी नीतिकारने कहा है :
___ अनेक-संशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥ अनेक संशयोंका उच्छेदन करनेवाला और परोक्ष पदार्थसमूहका दिखलानेवाला सबका लोचन ( नेत्र ) शास्त्र है, जो इस लोचनसे विहीन है वही अन्धा है।"
किसका कौन नेत्र साधूनामागमश्चक्षुर्भूतानां चक्षुरिन्द्रियम् ।
देवानामवधिश्चक्षुनिवृताः सर्व-चक्षुपः ।।१६।। ___'साधुओंकी चक्षु ( आँख ) आगम-शास्त्र है, साधारण प्राणियोंकी चक्षु इन्द्रिय है, देवोंकी चक्षु अवधिदर्शन है और जो निर्वृत हैं--मुक्तिको प्राप्त हैं-वे सर्वचक्षु हैं।'
व्याख्या--यहाँ किसका कौन नेत्र, इसका निर्देश करते हुए साधुओंका नेत्र आगमको, भूतोंका--सर्व प्राणियोंका-नेत्र इन्द्रियको, और देवोंका नेत्र अवधिदर्शनको बतलाया है। साथ ही जो संसारसे मुक्त हो गये हैं उन्हें 'सर्वचक्षु'-सब ओरसे देखनेवाले-लिखा है। प्रवचनसार में भी 'आगमचव साहू जैसे वाक्यके द्वारा साधुको आगमचक्षु-आगमनेत्रसे देखनेवाला-बतलाया है । इससे साधुका आगमज्ञाता होना और आगमके अनुसार आचरण करना, ये दोनों ही आवश्यक होते हैं।
१. आगम चबख साह इंदयचक्वणि सवभूदाणि । देवा य ओहिचवा सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥
-प्रवचनसार ३-३४
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