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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ४ पाप-बन्धके कारण निन्दकत्वं प्रतीक्ष्ये(ड्ये)पु नैघृण्यं सर्वजन्तुषु ।
निन्दिते चरणे रागः पाप-बन्ध-विधायकः ॥३८॥ 'पूज्यों में निन्दाका भाव, सर्वप्राणियोंके प्रति निर्दयता और दूषित चारित्रके अनुष्ठानमें राग (यह सब) पाप-बन्धका विधाता है।'
___ व्याख्या-यहाँ साररूपमें पाप-बन्धके कारणोंका उल्लेख करते हुए उन्हें भी तीन प्रकारका बतलाया है-एक इष्टों-पूज्योंके प्रति निन्दाका भाव, दूसरा सब प्राणियोंपर निर्दयता-हिंसाका भाव और तीसरा निन्दित चारित्रमें अनुराग । निन्दित चारित्रका अभिप्राय प्रायः उस चारित्रसे है जो हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और पर-पदार्थों में गाढ़ ममत्वके रूपमें जाना-पहचाना जाता है।
पुण्य-पापमें भेद-दृष्टि सुखासुख-विधानेन विशेषः पुण्य-पापयोः ।
नित्य-सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मुग्धबुद्धिभिः ॥३६॥ 'जिन्हें शाश्वत सुखका दर्शन नहीं होता उन मूढ़-बुद्धियोंके द्वारा पुण्य-पापमें भेद सुखदुःखके विधानरूपसे माना जाता है-सांसारिक सुखके विधायकको 'पुण्य' और दुःखके विधायकको 'पाप' कहा जाता है।'
व्याख्या-पुण्य और पापके भेदको स्पष्ट करते हुए यहाँ बतलाया गया है कि जो पुण्यको सुख-विधायक और पापको दुःख-विधायक मानकर दोनोंमें भेद करते हैं वे स्वात्मोत्थित स्वाधीन शाश्वत सुखको न जानने-न देखनेवाले मूढबुद्धि हैं। असली सुखको न समझकर उन्होंने नकली सुखको जो वस्तुतः दुःखरूप ही है, सुख मान लिया है।
पुण्य-पापमें अभेद-दृष्टि पश्यन्तो जन्मकान्तारे प्रवेशं पुण्य-पापतः ।
विशेष प्रतिपद्यन्ते न तयोः शुद्धबुद्धयः ॥४०॥ 'पुण्य-पापके कारण संसार-वनमें प्रवेश होता है, यह देखते हुए जो शुद्ध-बुद्धि हैं वे पुण्यपापमें भेद नहीं करते हैं-दोनोंको संसार-बनमें भ्रमानेकी दृष्टिसे समान समझते हैं।' ।
व्याख्या-जो शुद्ध-बुद्धि-सम्यग्दृष्टि हैं वे यह देखकर कि पुण्य और पाप दोनों ही जीवको संसार-वनमें प्रवेश कराकर-उसे इधर-उधर भटकाकर-दुःखित करनेवाले हैं, दोनोंमें कोई वास्तविक भेद नहीं मानते-दोनोंको ही सोने-लोहेकी बेड़ीके समान पराधीन कारक बन्धन समझते हैं । भले ही पुण्यसे कुछ सांसारिक सुख मिले; परन्तु उस सुखके पराधीनतामय स्वरूप और उसकी क्षणभंगुरतादिको देखते हुए उसे वास्तविक सुख नहीं कहा जा सकता।
१. आ टिप्पणमें 'पूज्येषु' । २. मु सुखदुःखविधानेन ।
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