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पद्य ३८-४१]
बन्धाधिकार
निर्वृतिका पात्र योगी विषय-सुखतो व्यावृत्य' स्व-स्वरूपमवस्थितस्त्यजति धिषणां धर्माधर्म-प्रबन्ध-निबन्धिनीम् । जनन-गहने दुःखव्याघ्र प्रवेशपटीयसी कलिल-विकलं लब्ध्वात्मानं स गच्छति निवृतिम् ॥४१॥
इति श्रीमदमितगति-निःसंग-योगिराजविरचिते योगसारप्राभृते बन्धाधिकारः ॥४॥
'जो (योगी) विषय-सुखसे निवृत्त होकर अपने आत्मस्वरूप में अवस्थित होता है और धर्माधर्मरूप पुण्य-पापके बन्धकी कारणीभूत उस बुद्धिका त्याग करता है जो दुःख-व्याघ्रसे व्याप्त गहन संसार-वनमें प्रवेश करानेवाली है, वह कर्मरहित (विविक्त) आत्माको पाकर मुक्तिको प्राप्त होता है।'
व्याख्या-यह बन्धाधिकारका उपसंहार-पद्य है। इसमें उस बुद्धिका जिसका अधिकारमें कुछ विस्तारसे निर्देश है संक्षेपतः उल्लेख है और उसे पुण्य-पापका बन्ध करानेवाली तथा दुःखरूप व्याव-समूहसे व्याप्त संसार गहन-वनमें प्रवेश करानेवाली लिखा है। इस बुद्धिको वही योगी त्यागने में समर्थ होता है जो इन्द्रिय-विषयोंके सुखको वास्तविक सुख न मानता हुआ उससे विरक्त एवं निवृत्त होकर अपने आत्म-स्वरूपमें स्थित होता है और जो आत्म-स्वरूप में स्थित होता है वही कर्मकलंकसे रहित शुद्धात्मत्वको प्राप्त होकर मुक्तिको प्राप्त होता है-बन्धनसे सर्वथा छूट जाता है।
इस पद्यमें प्रयुक्त हुआ 'धर्म' शब्द पुण्यका 'अधर्म' शब्द पापका और 'कलिल' शब्द कर्ममलका वाचक है। इस प्रकार श्री अमितगति-नि:मंगयोगिराज-विरचित योगसारप्राभृतमें बन्धाधिकार नामका
चौथा अधिकार समाप्त हुआ ॥४॥
१. आ व्यावृत्य यो । २. व्या धर्माधर्मप्रवन्धनों ।
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