________________
१०१
पद्य १५-२२]
संवराधिकार व्याख्या-पिछले पद्यमें आत्माके जिन गुणोंकी सूचना है उन्हें यहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्रके रूपमें उल्लेखित किया है, जिन्हें सम्यक विशेषणसे विशिष्ट समझना चाहिए; तभी वे गुणोंकी कोटि में आते हैं, अन्यथा मिथ्यादर्शनादिक गुण न होकर अवगुण अथवा दोष कहे जाते हैं । इन सम्यग्दर्शनादि गुणोंको न तो इन्द्रियोंके स्पर्शनादि विषय हरते हैं-इन्द्रियविषयोंके सेवनसे उनका नाश नहीं हो जाता और न निरन्तर सेवा किये गये गुरुजनादिक उन्हें उत्पन्न ही करते हैं । जो जीव परिणमनशील है उसके ये गुण पर्याय दृष्टिसे उत्पन्न होते तथा विनाशको प्राप्त होते हैं-द्रव्यदृष्टि से नहीं । द्रव्यकी अपेक्षा कोई भी वस्तु न कभी उत्पन्न होती और न कभी नाशको ही प्राप्त होती है, उत्पाद और व्यय पोयोंमें-अवस्थाओं हुआ करता है। ऐसी स्थितिमें जीव स्वयं भी इन गुणोंका कर्ता-हर्ता नहीं और न कभी परके कारण इन गुणोंका आत्मामें नवोत्पाद अथवा मूलतः विनाश ही होता है ।
शरीरादिक व्यवहारसे मोह हैं निश्चयसे नहीं शरीरमिन्द्रियं द्रव्यं विषयो विभवो विभुः। ममेति व्यवहारेण भग्यते न च तत्त्वतः ॥२०॥ तत्त्वतो यदि जायन्ते तस्य ते न तदा भिदा ।
दृश्यते, दृश्यते चासौ ततस्तस्य न ते मताः ॥२१॥ 'मेरा शरीर, मेरी इन्द्रियाँ, मेरा द्रव्य, मेरा दिषय, मेरी विभूति, मेरा स्वामी यह सब व्यवहारसे-व्यवहार नयकी अपेक्षासे-कहा जाता है, तत्त्वसे नहीं-निश्चय नयकी अपेक्षासे नहीं कहा जाता । यदि तत्त्व दष्टिसे ये सब आत्माके होते हैं ऐसा माना जाये तो आत्मा और शरीरादिकमें भेद दिखाई नहीं देना चाहिए, किन्तु भेद प्रत्यक्ष दिखाई देता है इसलिए वे आत्माके नहीं माने गये।
व्याख्या-शरीर-इन्द्रियों, धनादिक द्रव्यों, इन्द्रिय विषयों, विभव और विभु (स्वामी) को व्यवहार नयकी दृष्टिसे मेरा कहनेमें आता है तात्त्विक दृष्टिसे नहीं। यदि तात्त्विक दृष्टिसे उन्हें आत्माके माना जाय तो फिर आत्मासे उनका भेद नहीं बनता, परन्तु भेद स्पष्ट नजर आता है इसलिए वे शरीरादिक आत्माके नहीं और न निश्चय दृष्टिसे उन्हें आत्माके माना गया है।
दोनों नयोंसे स्व-परको जाननेका फल विज्ञायेति तयोद्रेव्यं परं स्वं मन्यते सदा ।
आत्म-तत्त्व-रतो योगी विदधाति स संवरम् ॥२२॥ 'इस प्रकार व्यवहार तथा निश्चय नयको दृष्टिसे आत्मा और शरीरादि दोनोंके भेदको जानकर जो योगी सदा स्वद्रव्यको स्वके रूपमें और परद्रव्यको परके रूपमें मानता है वह आत्मतत्त्वमें लीन हुआ योगी सदा संवर करता है-कर्मोके आस्रवको रोकता है।'
व्याख्या-यहाँ पिछले कथनका सार खींचते और उसे संवर तत्त्वके साथ संघटित करते हुए यह सूचना की है कि जो पूर्वोक्त प्रकारसे निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंके द्वारा
१. आ विभयो। २. आ जोगी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org