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योगसार-प्राभूत
[ अधिकार ५ शरीरको आत्माका निग्रहानुग्राहक मानना व्यर्थ स्वदेहोऽपि न मे यस्य निग्रहानुग्रहे क्षमः ।
निग्रहानुग्रहौ तस्य कुर्वन्त्यन्ये वृथामतिः ॥१५॥ 'मेरा स्वशरीर भी जिसके ( मेरे आत्माके ) निग्रह-अनुग्रहमें समर्थ नहीं है उसका निग्रहअनुग्रह दूसरे करते हैं ऐसा मानना मेरा व्यर्थ है।'
व्याख्या-यहाँ योगी सोचता है कि जब मेरा शरीर भी मेरा निग्रह-अनुग्रह करनेमें समर्थ नहीं है तब मेरा निग्रह-अनुग्रह कोई दूसरा करता है ऐसा मानना व्यर्थ है ।
किसीके गुणोंको करने-हरनेखें कोई समर्थ नहीं शक्यन्ते न गुणाः कर्तुं हर्तुमन्येन मे यतः । कर्तुं हतु परस्यापि ने पार्यन्ते गुणा मया ॥१६॥ मयान्यस्य ममान्येन क्रियतेऽक्रियते गुणः ।
मिथ्यैषा कल्पना सर्वा क्रियते मोहिभिस्ततः ॥१७।। 'चू कि परके द्वारा मेरे गुण किये या हरे नहीं जा सकते और न मेरे द्वारा परके गुण किये या हरे जा सकते हैं अतः परके द्वारा मेरा और मेरे द्वारा परका कोई गुण-उपकार किया जाता है या नहीं किया जाता यह सब कल्पना मिथ्या है, जो कि मोहसे अभिभूत प्राणियोंके द्वारा की जाती है।'
व्याख्या-यहाँ योगी तात्त्विकी अथवा निश्चय दृष्टिसे सोचता है कि दूसरा कोई भी मेरे गुणोंको करने या हरनेमें समर्थ नहीं है और न मैं किसी दूसरेके गुणों को करने या हरनेमें समर्थ हूँ; तब मैंने दूसरेका या दूसरेने मेरा कोई गुण किया है या नहीं किया है, यह सब विकल्प बुद्धि-मिथ्या है और इसे वे ही जीव करते हैं जो दर्शनमोहके उदयवश दृष्टिविकारको लिये हुए हैं अथवा यों कहिए सम्यग्दृष्टि न होकर मिथ्यादृष्टि हैं ।
ज्ञानादिक गुणोंका किसीके द्वारा हरण-सृजन नहीं ज्ञान-दृष्टि-चरित्राणि हियन्ते नाक्षगोचरैः। क्रियन्ते न च गुर्वाद्यः सेव्यमानैरनारतम् ।।१८॥ उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिनः ।
ततः स्वयं स दाता न, परतो न कदाचन ॥१६॥ 'ज्ञान, दर्शन और चारित्र (गुण ) इन्द्रिय-विषयोंके द्वारा हरे नहीं जाते और न निरन्तर सेवा किये गये गुरुओं आदिके द्वारा सृजन ( उत्पन्न ) किये जाते हैं; परिणामी जीवके (पर्यायदृष्टिसे ) ये स्वयं उत्पन्न होते तथा विनाशको प्राप्त होते हैं, और इसलिए जीव स्वयं इनका दाता ( कर्ता-हर्ता) नहीं और न परके कारण इनका कदाचित् उत्पाद-व्यय होता है।'
१. आ 'न' नहीं।
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