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संवराधिकार
संवरका लक्षण और उसके दो भेद
कल्मषागमनद्वार-निरोधः संवरो मतः । भाव- द्रव्यविभेदेन द्विविधः कृतसंवरैः ॥ १ ॥
'जो कर्मका संवर कर चुके हैं उनके द्वारा कल्मषोंके - कपायादि कर्ममलोके -आगमनद्वारोंका निरोध ( रोकना ) 'संवर' माना गया है और वह भाव द्रव्यके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है - एक भावसंवर, दूसरा द्रव्यसंवर ।'
व्याख्या - संवराधिकारका प्रारम्भ करते हुए यहाँ सबसे पहले संवर तत्त्वका लक्षण दिया है और फिर उसके द्रव्यसंवर तथा भावसंवर ऐसे दो भेद किये गये हैं । 'कल्मपोंके आगमन-द्वारोंका निरोध' यह संवरका लक्षण है । इसमें 'कल्प' शब्द कषायादि सारे कर्म-मलोंका वाचक है और 'आगमनद्वार' शब्द आत्मामें कर्म-मलोंके प्रवेशके लिए हेतुभूत जो मन-वचन-कायका व्यापार रूप आस्रव है उसका द्योतक है । इसीसे मोक्ष - शास्त्र में सूत्र रूप से 'आस्रवनिरोधः संवरः' इतना ही संवरका लक्षण दिया है ।
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भाव तथा द्रव्य-संवरका स्वरूप
रोधस्तत्र कषायाणां कथ्यते भावसंवरः । दुरितास्रव विच्छेदस्तद्रोधे द्रव्यसंवरः || २ ||
'संवरकी उक्त भेद-कल्पनामें कषायोंका निरोध 'भावसंवर' कहलाता है और कषायोंके निरोधपर जो ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्मोंके आस्रव ( आगमन) का विच्छेद होता है वह 'द्रव्यसंवर' कहा जाता है ।'
व्याख्या - पिछले पद्य में संवरके जिन दो भेदोंका नामोल्लेख किया गया है इस पद्य में उनका स्वरूप दिया गया है। क्रोधादिरूप कपायोंके निरोधको 'भावसंवर' बतलाया है। और कषायोंका निरोध ( भावसंवर ) होनेपर जो पौद्गलिक कर्मोंका आत्म-प्रवेश रूप आस्रव रुकता है उसे 'द्रव्यसंवर' घोषित किया है ।
कषाय और द्रव्यकर्म दोनोंके प्रभाव से पूर्ण शुद्धि कषायेभ्यो यतः कर्म कषायाः सन्ति कर्मतः । ततो द्वितयविच्छेदे शुद्धिः संपद्यते परा ॥
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'चूँकि कषायोंसे कर्म और कर्मसे कषाय होते हैं अतः दोनोंका विनाश होनेपर ( आत्मा में ) परम शुद्धि सम्पन्न होती है ।'
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